सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

विज्ञापन-संदेश

खाना पैकेट-बंद चिप्स तुम, सीधे आलू कभी चखना
बाइक से उतरे, तो पैदल चलने पर टूटेगा टखना।
इंसानों को जूतों, कपड़ों, त्वचा, केश से सदा परखना।
दृष्टिकोण चाहे जैसा हो, ब्रश का कोण ठीक ही रखना।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

मैं क्यों लिखता हूँ? (दूसरा भाग)

विगत दो दशकों में हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में कुछ ऐसे परिवर्तन आये हैं जिन्हों ने हमारी जीवन-शैली को प्रभावित करने के साथ-साथ हमारे दृष्टिकोण, मूल्यों, प्रवृत्तियों और चिंतन-पद्धतियों तक को बदल डाला है। पीढ़ियों के आपसी संपर्क-सूत्रों, पारिवारिक संबंधों तथा समूहों के आपसी समीकरणों में भी महत्त्वपूर्ण उलटफेर हो रहे हैं। परंपरा की हमारी अवधारणा और उसके प्रति हमारी दृष्टि भी अब पहले जैसी नहीं रही हैं। स्थूल परिवर्तनों का लेखा-जोखा तो तथ्यात्मक सूचना-स्रोतों से मिल जाता है, परन्तु मूल्यों और दृष्टियों में आ रहे सूक्ष्म परिवर्तनों के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का दुष्कर कार्य साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है। अपने समय की धड़कनों को सुन कर और जानी-अनजानी आंतरिक तथा बाहरी शक्तियों द्वारा परिचालित व्यक्तियों के विविध क्रिया-कलापों की सामूहिकता की नब्ज़ पर हाथ रख कर यह पहचानना कि वस्तुतः किस स्तर पर कहाँ क्या और क्यों हो रहा है --एक बहुत बड़ी चुनौती है।
हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में आज जो प्रवृत्तियां ज़ोर पकड़ रही हैं, उनके कारण स्वस्थ साहित्य की पहुँच निरंतर सीमित होती जा रही है। इसके बावजूद अभी हमारी जिजीविषा, जीवन - मूल्यों के प्रति आस्था और इंसानियत की गरिमा का अभी पूरी तरह क्षरण नहीं हुआ है। साहित्य का आधार अभी सुरक्षित है और जीवन को अधिक सुंदर तथा जीने योग्य बनाने की उसकी सामर्थ्य पर मुझे भरोसा है। बल्कि यह बात मेरे भीतर अटल विश्वास की तरह स्थापित है।
लेखन-कर्म जितना आनंद-दायक अनुभव है, लेखन के बाद पुस्तक के पाठकों तक पहुँचने की सारी प्रक्रिया, कम से कम हिन्दी-जगत में, उतना ही पीड़ादायक अनुभव है। किसी भी लेखक को साहित्य-क्षेत्र में बने रहने के लिए इस दुखद स्थिति को बार-बार झेलना ही होता है। चलिए, प्रकाशक तो, ख़ैर, व्यापारी होता है; समीक्षा तो व्यापार नहीं। परन्तु लगभग शत-प्रतिशत समीक्षा प्रायोजित होती है। क्या यह शर्मनाक स्थिति नहीं है?
हमें लेखक के रूप में पहचाना जाये या हमारी रचनाएँ पढ़ी और पसंद की जाएँ, तो यह हमें अक्सर किसी उपलब्धि जैसा प्रतीत होता है। एक मायने में यह सही भी है। पर मुझे यह एहसास होने लगा है कि साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की व्यक्तिगत प्रतिभा के कायल होने के साथ-साथ हम अगर इन उपलब्धियों की सामूहिकता को समझें, उसे स्वीकार करें और उस पर जोर दें तो बेहतर होगा। वैसे देखा जाये तो जो हमारा मौलिक लेखन कहलाता है, वह हमारी व्यक्तिगत प्रतिभा की छाप के बावजूद बहुत हद तक हमें अपनी परंपरा, विरासत, अध्ययन, सामाजिक अनुभवों और सोचने-समझने की समाज से प्राप्त हुई पद्धतियों से ही निर्मित होता है।

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

मैं क्यों लिखता हूँ ? (पहला भाग)

कई बार हम यह मान बैठते हैं कि हमारे आसपास की चीज़ें और स्थितियां जैसी हैं वैसी की वैसी बनी रहें तो यह उचित भी है और सुविधाजनक भी। हम सोचने लगते हैं कि इसमें हर्ज़ भी क्या है ? क्या परेशानी है ? ऐसे में हम यह भूल जाते हैं कि इन चीज़ों और स्थितियों को अगर वैसे का वैसा छोड़ दें तो ये वैसी नहीं रहेंगी बल्कि ख़राब होने लगेंगी; इनमें विकृतियाँ, सड़न और दुर्गन्ध समा जाएंगे। हम स्वयं चीज़ें नहीं बल्कि सचेत, संवेदनशील, सोचने-समझने वाले इंसान हैं। हमारा हस्तक्षेप चीज़ों और स्थितियों को बेहतर बनाने एवं उनके सकारात्मक पक्षोंको बनाए रखने के लिए ज़रूरी है। यह निहायत ज़रूरी है कि हम हस्तक्षेप करें-- विचार से करें,चेतना के विस्तार से तथा ज़्यादा परिपक्व होकर। सारे मानव-समाज के लिए, स्वयं अपने लिए, अपने देश, नगर-गाँव और पूरे माहौलके लिए यह ज़रूरी है। अगर बदलाव की ज़रूरत ही महसूस हो और बदलाव होने का विश्वास ही हो, तो किसी भी तरह का सांस्कृतिक-रचनात्मक कर्म व्यर्थ हो जाएगा। कविता-कहानी लिखना मेरी दृष्टि में इसी तरह का एक सार्थक हस्तक्षेप है।

चाहे यह तय है कि अपने व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन के यथार्थ से जुड़ा हुआ रचना-क्रम ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, फिर भी किसी--किसी स्वीकृत आदर्श या ऊँचाई की ओर प्रस्थान का उपक्रम कवि या लेखक की रचनाओं में मौजूद रहता है। बदलाव की जिस कोशिश का मैंने अभी ज़िक्र किया है, वह किन्हीं जीवन-मूल्यों और आदर्शों के सन्दर्भ में ही सार्थक हो सकती है। ये कोई बड़े, उदात्त, क्रन्तिकारी, रामबाण-तुल्य या चमत्कारपूर्ण आदर्श नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपनाए जाने लायक ऐसे दिशा-निदेशक स्वस्थ मूल्य हैं, जो अपने समाज की पूर्ववर्ती पीढ़ियों द्वारा इतिहास के लम्बे अरसे के दौरान विकसित किये गए हैं और परंपरा या विरासत के रूप में हमें आज उपलब्ध हें

ये मूल्य और आदर्श बेहद सीधे-सादे और सामान्य लगने के बावजूद आधारभूत हें और अत्यंत महत्त्वपूर्ण हें। जैसे सहिष्णुता और सहनशीलता दोनों ही बातें आज की स्थितियों में ज़्यादा ज़रूरी हो गयी हें। समाज में, परिवार में, देश में, संसार में अपने से इतर जो ' दूसरे' हैं, जिन्हें हम 'दूसरे' मानते रहते हैं, उनके प्रति स्वागत और खुलेपन का दृष्टिकोण, उनके लिए स्थान छोड़ने उनका ध्यान रखने की प्रवृत्ति -- इन बातों की आज ज़रुरत है। डर, असुरक्षा, बेचैनी, छीनाझपटी हो या किन्हीं अन्य भीतरी कमज़ोरियों अथवा बाहरी दबावों से उपजी आक्रामकता, असहिष्णुता, नफरत और वहशीपन हो-- इन सबसे निजात पाई जा सकती है। इसी विश्वास और आस्था की डोर से बांध कर कविता, कहानी, लेख अदि लिखना मुझे सार्थक ही नहीं, अनिवार्य लगने लगता है।


स्थितियों में बदलाव लाने के उद्देश्य से किया गया किसी भी तरह का हस्तक्षेप तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक उसके पीछे स्थितियों की ठीक-ठीक समझ भी काम कर रही हो। आज के माहौल में समस्या सिर्फ शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि के स्थूल रूप से पहचाने जा सकने वाले विविध रूपों की ही नहीं है, बल्कि हमारी चेतना, जीवन-दृष्टि और संवेदना के विस्तार और गहराई के ख़िलाफ़ काम करने वाले उन सूक्ष्म दबावों तथा छिपे हुए कारकों की भी है, जो केवल हमारी चेतना को सीमित करते हें, बल्कि परोक्ष रूप में उसे विकृत भी करते रहते हें।ऐसे हालात में स्थितियों की ठीक-ठीक समझ बनाना और उनके पूरे परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख पाना पहले से कहीं ज़्यादा दुष्कर हो गया है।


गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

बर्फ़ के ख़िलाफ़

बर्फ़ के ख़िलाफ़ क्या किया जाए ?
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़ क्या किया जाए ?
या तो ऐसा करें
कि उसके ठोस रपटीले सीने पर बीचोंबीच
मज़बूती से नोकदार सुआ रख कर
प्रहार करें
करते चले जायें
जिससे वह टूटे, कमज़ोर हो
इससे चाहे जितना भी शोर हो।
या फिर ऐसा कर सकते हैं
चुपके से बर्फ़ के माहौल में
थोड़ी सी आंच भर सकते हैं
यूँ उसके महातुष्ट रपटीले सीने पर
ऊष्मा के स्पर्श भरा हाथ धर सकते हैं
ऐसा कर देने से
पथरायापन खो कर
पानी-पानी हो कर
बदलेगी बर्फ़
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़
कौन-सा तरीका अपनाएं ?
बर्फ़ को तोड़ें या पिघलाएं ?