शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

चेहरों का माहिया

माहिया पंजाब की एक लोक-विधा है । इसके छंद का प्रयोग करते हुए आधुनिक भाव-बोध को व्यक्त करने का यह एक छोटा-सा प्रयास है :
चेहरे प्रतिमाओं के ।
छंद हैं ये पत्थर पर
लिक्खी कविताओं के ।

चेहरे पर दो आँखें ।
उड़ते बनपाखी की
फैली हुई हैं पाँखें ।

चेहरे क्यों उतर गये ?
दांत दुश्चिंता के
भीतर तक कुतर गये ।

चेहरे की लकीरों में ।
दर्द रेखांकित है
बूढी तस्वीरों में ।

चेहरों में परिवर्तन ।
होगा फिर नाटक का
इक और खुला मंचन ।

चेहरे भ्रमजाल बने ।
ये कभी नारायण
कभी नर-कंकाल बने ।

चेहरों का जंगल है ।
घना कुहरा है कभी
कभी छाया हुआ बादल है ।

चेहरे फिर सख्त हुए ।
प्यार विकलांग हुआ
रिश्ते हैं दरख़्त हुए ।

चेहरों की एल्बम है ।
खाली इक पृष्ठ पड़ा
कि अधूरी सरगम है ।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

धूप ज़रा मुझ तक आने दो

धूप ज़रा मुझ तक आने दो !

सुनो, शीत से काँप रहा हूँ
तन बाँहों से ढाँप रहा हूँ
कैसे राहत मिल सकती है
सूरज से मैं भाँप रहा हूँ ।

नहीं मूँगफली भुनी हुई, बस
थोड़ी गरमाहट खाने दो ।

कब से आगे खड़े हुए हो
बीच में आ कर अड़े हुए हो
खूब समझते हो सारा कुछ
फिर भी चिकने घड़े हुए हो ।

ऐसा क्या है ? मान भी जाओ,
जाने दो, यह ज़िद जाने दो ।

खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !

किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।

धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

रात दिसंबर की

मौन रहस्यों की करती रखवाली रात दिसंबर की ।
चींटी की मानिंद चल रही काली रात दिसंबर की ।

खोई है अतीत में फिर भी गूँज रही उसकी आवाज़
कैसी थी वह हाथ से छूटी थाली रात दिसंबर की ?

कमरा, बिस्तर, टेबल, कुर्सी औ' उदास-सी दो आँखें
इतना कुछ फिर भी लगती है ख़ाली रात दिसंबर की ।

ठिठुरे खड़े पेड़ गुमसुम है आसमान भी जाग रहा
भूखे पेट मजूर को लगती गाली रात दिसंबर की ।

ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अंतराल

मेरे पुरखे कितने विवश और असहाय
रहे होंगे
उन्हें इस प्यारी धरती को
मेरे हवाले कर के आखिर जाना पड़ा .
मेरे बच्चों के बच्चे
कितने विवश और असहाय होंगे
कैसी धरती होगी
जिसे मैं उनके हवाले कर के जाऊँगा !
इस अंतराल में कोई विवश और असहाय नहीं है
तो वह मैं हूँ !

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

'लम्बर' वाली पर्ची, सन्दर्भ भोपाल गैस काण्ड

सन्दर्भ: भोपाल गैस काण्ड के कई वर्ष बाद किसी पत्रकार के सवाल का एक गैस-पीड़ित महिला ने यह जवाब दिया-"हमें तो जी बस ये 'लम्बर' (नंबर) वाली पर्ची मिली है ।" कह कर उसने मुडी-तुड़ी पर्ची खोल कर दिखायी ।

कितनी बार पेश कर- कर के जेब में डाली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।

गैस हवा में डैने फैलाये थी डायन जैसे
फन फैलाये घूम रही ज़हरीली नागन जैसे
अपनी साँसें भी लगती हैं अपनी दुश्मन जैसे ।
लुट कर यूँ खोखले हुए, हों खाली बर्तन जैसे ।

हाथ हमारे आयी है तो बस ये खाली पर्ची ।

बीमारी ने इस कमज़ोर बदन में सेंध लगाई
भूख-प्यास के मारे अपनी जान गले तक आई
तब धकियाने वालों ने ये पर्ची हमें थमाई
इधर दिखाई, उधर दिखाई, कितनों से पढवाई ।

बिना दवाई राशन के लगती है गाली पर्ची ।

जो फ़रियाद करे वो जा कर लाठी-गोली खाए
उस डायन से बढ कर निकले, जो भी मिलने आए
स्वारथ के भूखे इन गलियों में आ कर मंडराए
कई दिनों तक सिर्फ़ अँगूठे कागज़ पर लगवाये ।

वे ही लोग आज कहते हैं ये है जाली पर्ची ।

कितने और तरीकों से है हमें मारना बाकी ?
ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर है अपनी बिपदा की
उन पर हाथ कहाँ डालेगी कोई वर्दी खाकी ?
कम-से-कम मिल जाए हमको अपना चूल्हा-चाकी ।

ले लो हमसे वापस अपने जैसी काली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।