मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अपनी अलिखित कविता के नाम

ओ मेरी अलिखित कविते!
अनिश्चित है तुम्हारा रूप, पर संभावनाएँ अनगिनत हैं.

शब्द, भाषा, छंद के बंधन नहीं तुम पर,
कि तुमने कागज़ों की खुरदरी, मैली, कंटीली-सी ज़मीनों पर
नहीं रक्खे हैं अपने पाँव अब तक,

नहीं तुम जानतीं
उड़ते हुए, स्वच्छंद, बन्धनहीन भावों को
पकड़ कर पंक्तियों में खड़ा करना
और उनको बाँधना
दुस्साध्य है कितना,

कि कैसे कुछ अमूर्त, अनाम-से अनुभाव
हो विक्षिप्त
अपने लिए जा कर खोजते
अपनी सही पहचान,
कि कैसे अनकहा, अव्यक्त रह जाता
सदा वह एक ही कथनीय,

कि कितने कटु कटाक्ष
प्रतिक्रिया के रूप में आ कर
तुम्हारे स्वत्व पर, अस्तित्व पर
उछालेंगे अतर्कित प्रश्न --
"क्यों हो तुम?"

कि वे ही लोग जो अपने विषय में
इस तरह के प्रश्न का उत्तर नहीं थे दे सके अब तक,
वही अब प्रश्न पूछेंगे!

नहीं मैं चाहता सचमुच
कि तुम अलिखित रहो, अनजान, दुनिया से अपरिचित,
परिधियों के पक्षधर हम सब यहाँ पर,
और फिर यूँ भी
तुम्हें आकार देने की
इस आदिम विवशता का
मैं बहुत सम्मान करता हूँ!

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

परदेसी की पाती

दीपावली का पर्व अपने प्रियजनों, पत्नी और बच्चों के साथ मनाया जाता है. पर कोई-कोई परदेसी किसी मजबूरी के चलते दीवाली पर भी अपने घर नहीं लौट पता. ऐसे समय में वह अपनी पत्नी के नाम क्या सन्देश देता है? प्रस्तुत है कविता:

अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?
साँझ ढले कल छत के ऊपर दीप जलाने जाओगी?

सकुचाई-सी कुछ-कुछ ठंडी हवा तुम्हें दुलराने को
केश तुम्हारे चूम-चूम कर मेरी याद दिलाने को
कानों में कुछ कह दे तो क्या मुस्का कर शरमाओगी?

एक दीप नन्हा-सा तुम देहरी के पास सजा देना
बच्चों को सुन्दर फुलझडियाँ और मिठाई ला देना
तुम मजबूरी समझ गयीं पर उनको क्या समझाओगी?

काले नभ के नीचे घर पर दीपों का पहरा होगा
ज्योति-पर्व की रात अकेलापन कितना गहरा होगा
बच्चे तो सो जायेंगे, पर तुम कैसे सो पाओगी?
अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?