मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

लौटते मज़दूरों का बयान

17 मई 1988 की रात को पंजाब में रोपड़ के निकट एस वाई एल नहर के निर्माण में लगे इकतीस मजदूरों की आतंकवादियों द्वारा हत्या के बाद शेष मज़दूर बिहार आदि अपने प्रान्तों को लौटने लगे. इस प्रकार के समाचारों से प्रेरित थी यह कविता!

हम तो आये थे बाबूजी, लिंक नहर बनवाने को
बहता देखा खून, हुए मजबूर लौट कर जाने को.

आँधी थी कल रात, अँधेरा भी था गहरा-गहरा-सा
शोर हवाएँ करती थीं, पर आसमान था बहरा-सा
वक्त थम गया हो जैसे, हर पल लगता था ठहरा-सा
आप सुबह से मुर्दों पर देते हैं कैसा पहरा-सा?

ज़ख़्मी या मुर्दे तो पहुँचे नहीं रपट लिखवाने को.

सोच समझ कर आते हैं वहशी हमलावर, बिलकुल ठीक
वो फैलाना चाह रहे हैं लोगों में डर, बिलकुल ठीक
नहीं बचाया जा सकता हर गाँव या शहर, बिलकुल ठीक
हमें बचाना आपके बूते से है बाहर, बिलकुल ठीक

क्या ऐसी ही बातें अब रहती हैं हमें बताने को?

अगर नहर चालू होगी बंदूकों की निगरानी में
लहू बहेगा तीस जवाँ मज़दूरों का उस पानी में
मज़दूरों का ज़िक्र न होगा लेकिन किसी कहानी में
वो तो जान गँवा बैठे अनजाने में, नादानी में

मगर अभी तक जान बची है अपने पास बचाने को.

सोचा था कट जायं दलिद्दर, करने दूर कलेस चले
लेकिन किस्मत के आगे इंसानों की कब पेस चले?
किस से हो फ़रियाद भला अब किसके ऊपर केस चले?
फिर सामान बाँध कर आखिर अपने-अपने देस चले.

फिर से बीवी-बच्चे अब तरसेंगे दाने-दाने को.