बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

पुरवा का गीत

पुरवा की सनन सनन
फूलों की नर्म छुअन

रोम-रोम फूट रही मादक-सी गंध.

रात भर सजीली ये राह बिछी पलकें
कन्धों पर लेट गयीं थकी-थकी अलकें
चुनरी में मौसम के रस-रंग झलकें

बिरहा में मन का है तन से अनुबंध!

खड़ी हुई सज कर ज्यों कोई लोकगीत
आँखों में बसा हुआ परदेसी मीत
यादों में तैर रहा फिर वही अतीत

पनपा था नेह का जब उनसे सम्बन्ध!

सुधियों के पाखी की मुक्त है उड़ान
स्वप्न भरें तन-मन की बांसुरी में तान
आवारा मेघ भरें मौसम के कान

आज नहीं कोई भी इन पर प्रतिबन्ध!

रोम-रोम फूट रही मादक-सी गंध!

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

रूठे बच्चे से दो बातें

कमरा चाहे जितना भी बड़ा हो,
उसकी छत आसमान तो नहीं होती.
अलबत्ता कमरे की खिड़की में
आसमान का कोई टुकड़ा-भर हो सकता है .

वैसे आसमान को देखना
उसमें उड़ान भरने जैसा बिलकुल नहीं होता
लेकिन आसमान को देखना
बिस्तर पर लेट कर
कमरे की दीवार को देखने से तो
बेहतर होता है.

(शामिल होने से खामोश इनकार करती
तुम्हारी पीठ के साथ मेरा संवाद
किसी नए लहजे की तलाश में है.)

अच्छा, बूझो,
वो क्या चीज़ है,
जो छत या दीवार में नहीं,
सिर्फ़ आकाश में है?

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

बात करती है नज़र .....

बात करती है नज़र, होंठ हमारे चुप हैं.
यानी तूफ़ान तो भीतर है, किनारे चुप हैं.

ऐसा लगता है अभी बोल उठेंगे हँस कर
मंद मुस्कान लिए चाँद-सितारे चुप हैं.

उनकी ख़ामोशी का कारण था प्रलोभन कोई
और हम समझे कि वो खौफ़ के मारे चुप हैं.

बोलना भी है ज़रूरी साँस लेने की तरह
उनको मालूम तो है, फिर भी बेचारे चुप हैं.

भोर की वेला में जंगल में परिंदे लाखों
है कोई खास वजह, सारे के सारे चुप हैं.

जो हुआ, औरों ने औरों से किया, हमको क्या?

इक यही सबको भरम जिसके सहारे चुप हैं.