रविवार, 19 अक्तूबर 2014

कोई गल्ल नहीं, यार...

मैं ट्रेन में सोनीपत से कुरुक्षेत्र आ रहा था. बला की गर्मी थी और भीड़ की वजह से सब यात्री चिड़चिड़ा रहे थे. मैं दरवाज़े के निकट एक प्रौढ़ सिक्ख के साथ खड़ा था. बातों से पता चला कि उन्हें पानीपत जाना है.
पानीपत से पहले ही रात के अँधेरे में ट्रेन किसी छोटे से स्टेशन पर रुकी. मैंने बाहर झाँक कर स्टेशन का नाम पढ़ा.
अचानक भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे सिक्ख सहयात्री ने उतरने का उपक्रम किया. मैंने उन्हें कहा, "सरदार जी, ये तो 'दीवाना' (स्टेशन का नाम) है!"
उतरते-उतरते वे मुस्कराए और मुझे आश्वस्त करते हुए बोले, "कोई गल्ल नहीं, यार! असीं वी दीवाने ई हाँ!" और बाहर के अंधकार में विलीन हो गये.

Let's Re-define Man

You must have noticed that children naturally welcome even strangers with a smile.
I don't know why they define man as a social animal. Ants are also social!
Man should be redefined as a 'smiling animal'. No other animal is capable of smiling, of course, the Cheshire cat being an exception...! 

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

अख़बार में चेहरा

आज अख़बार में वो चेहरा आइना-सा लगा,
जिस पे लिक्खा था महज़ इतना - 'गुमशुदा की तलाश'!