शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

फूलहिं फलहिं न बेंत

दोपहर के बीतते-बीतते यूँ संवलाये बादलों का अचानक घिर आना कोई नयी बात नहीं है. बल्कि---अच्छा ही तो लगता है. दिन-भर चमकीली धूप के हृदयहीन प्रहारों के बाद ठंडक और गीलेपन का यह सुखद-सुहाना स्पर्श बड़ा मधुर और स्मरणीय अनुभव है. होना तो चाहिए, कम-से-कम.


बाबूजी की कुर्सी बरामदे में रक्खी रहती है. धूप हो, बरसात हो, सर्दी हो या गर्मी. इसका बेंत वर्षों से इस तरह के आकस्मिक और क्रमिक परिवर्तनों का अभ्यस्त हो चुका है. बाबूजी की तरह. लेकिन, बड़ा महत्वपूर्ण अंतर है एक. इस कुर्सी की उपयोगिता कम नहीं हुई है. बाबूजी के जरा-जर्जर शरीर को यह आज भी उसी निर्लिप्त भाव से ग्रहण करती है, जिस भाव से कभी उनके कर्मठ, संघर्षशील शरीर की श्रमजन्य थकान मिटाती थी. और बूंदाबांदी के इस मौसम में कुर्सी पर बैठे इस बूढ़े व्यक्ति की उपयोगिता.....

बादल घिरते आ रहे हैं. हवा में शीतलता व्याप गयी है. तेज़ क़दमों से घर लौटते इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर दिखाई दे जाते हैं. ऊपर रोशनदान में चिड़ियों की चीं-चीं का स्वर. घरेलूपन की गर्माहट और सुरक्षा.

कुर्सी की जगह चारपाई भी उपलब्ध हो सकती थी. पर उन्होंने स्वेच्छा से बहुत सारी सुविधाएँ छोड़ भी तो दी हैं. शुरू से ही यही करते आये हैं. बड़े ने जब कभी उनके आराम का या खानपान का ध्यान न रखने के लिए औपचारिकतावश बहू को सामान्य-से शब्दों में भी डपटना चाहा, तभी उन्होंने मुस्करा कर इन सभी सुविधाओं के अनावश्यक ---
बल्कि, हानिकारक ---होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं.

पर जब वह उनके कपड़ों पर, उन्हें पहनने के ढंग पर आपत्ति करता है, तब शायद कोरी औपचारिकता नहीं होती. आखिर उसके मित्र और मेहमान क्या सोचेंगे, अगर बाबूजी ने कपडे ढंग से नहीं पहने, तो ? यूँ देखा जाए तो यह भी औपचारिकता का ही बदला हुआ रूप है. उनके प्रति न सही, अपने मित्रों के प्रति.

बाहर गीली मिट्टी की गंध वातावरण में भरती जा रही है. आसमान की नीलिमा धुल गयी-सी लगती है. बूँदें बे-आवाज़ झरने लगी हैं. आसपास के मकान अजीब-सी ख़ामोशी में डूब गये हैं.

उनके पास उदास होने के लिए कोई ठोस कारण नहीं हैं. सब कुछ ठीक-ठाक है. बस, एक व्यर्थता के एहसास को छोड़ कर. अपनी व्यर्थता, अपने होने की व्यर्थता. अपने केन्द्र से हटा कर एक कोने में डाल दिए जाने की अनुभूति. अपने अवांछित, अनपेक्षित होने की पीड़ा. मुँह से कोई कुछ नहीं कहता. सभी जैसे कतरा कर चले जाते हैं.

बंटी और हनी अंदर ‘चेस’ खेल रहे हैं. उनकी आवाजें बीच-बीच में उत्तेजित, व्यंग्यपूर्ण, उल्लसित या गर्वित हो जाती हैं. बाबूजी जैसे पूरे वातावरण से असंबद्ध हैं. उनकी उपस्थिति की निरंतरता कोई ध्यान देने लायक बात नहीं है. इधर के कमरे में सुधा को मास्टर साहब कैमिस्ट्री पढ़ा रहे हैं. कैटलिस्ट. रासायनिक क्रिया में इसकी उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती. परन्तु यह क्रिया की गति बढ़ा देता है. अर्थात, इसकी उपस्थिति से क्रिया जल्दी पूरी हो जाती है. सारी क्रिया के दौरान इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता. यहाँ भी महत्त्वपूर्ण अंतर है. वे इस घर में, इस परिवार में होने वाली क्रियाओं में कहीं कैटलिस्ट भी नहीं हैं.

बादल बाहर पानी बरसा रहे हैं. पानी, यानी अमृत, सुधा. सुधा इस साल सीनियर सैकंडरी कका इम्तिहान दे रही है. बादल सुधा बरसा रहे हैं. उनकी कुर्सी का बेंत कमज़ोर पड़ गया है. आँगन के पास लटकी बेल की गीली पत्तियां ज्यादा हरी लगने लगी हैं. आसपास जीवन चल रहा है. सब कुछ गति में है. उनके बच्चे, उनके बच्चों के बच्चे फल-फूल रहे हैं. उनकी स्वर्गवासिनी पत्नी रामचरितमानस का नियमित रूप से पाठ किया करती थी. उन्होंने सुना था एक दिन --- “फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद.”

उनके फलने-फूलने का समय बीत गया. बहुत पहले, कई-कई साल पहले, स्कूल में पंडितजी पढ़ाते थे --- “कालो न यातो, वयमेव याताः.” समय नहीं बीतता, हमीं बीत जाते हैं. शायद वे स्वयं बीत गये. वे पंडितजी भी बीत गये होंगे. उन्होंने अपना बीतना स्वीकार लिया होगा. कुछ भी तो ऐसा नहीं है चारों ओर, जो इस तरह का स्वीकार न मांगता हो; जो बाबूजी के, बाबूजी जैसे अनगिनत व्यक्तियों के बार-बार हठपूर्वक उछाले गये नकार को, विरोध को सहन करता हो. जड़ प्रकृति के क्रिया-कलापों में, समय और प्रारब्ध सरीखी अमूर्त सत्ताओं में भी एक तरह का अप्रतिहत अहं है, एक तरह की अनिवार्यता है.

शतरंज के खेल में गरमा-गर्मी आ गयी है. बंटी की आवाज़ से लगता है, उसका पक्ष कमज़ोर पड़ गया है. उसका बादशाह व्यूह में घिर गया लगता है. बचने के रास्ते जैसे लगातार संकरे होते जा रहे हैं, सिमट रहे हैं. बाहर सड़क पर धुंधलका-सा घिर आया है. बारिश न भी होती, तो यूँ भी शाम को धुंधलका स्वाभाविक रूप से घिरता ही. बाबूजी रिटायर न भी होते तो यूँ भी बुढ़ापा आता. वे बीतते. शतरंज के बादशाह भी बीत जाते हैं. खैर, वह हार-जीत का सवाल है. जीत कर भी, लेकिन, बादशाह मैदान छोड़ जाते हैं. जाते तो हैं, जीत कर या हार कर.

दिन भर कितनी तो गर्मी पड़ी. पसीने की चिपचिपाहट. पपड़ाये होठों की अनबुझ प्यास. भीतर जाने कैसी-कैसी घबराहट. बाहर धूप का विस्तार. छाहौं चाहति छाँह. आइसक्रीम वाले की बन आयी होगी.

सड़क पर जा रहा है आइसक्रीम वाला. पता नहीं क्यों, एक बार रुक कर गुमसुम-सी टपकती बूंदों के बीच वह भर्राये गले से थकी-थकी दयनीय आवाज़ में पुकार उठता है --- “आ...इस्क्रीम !” आसपास के मकानों का एक बार जायजा लेता है. स्पंदन? गति? प्रत्युत्तर? प्रतिक्रिया? कुछ नहीं होता. आवाज़ बेहोश हवाओं की परतों में, बूंदों के पारदर्शी व्यूह में कहीं घिर कर दम तोड़ देती है. गोया सुनसान जंगल में रात की भयावह चुप्पी में किसी भटकी हुई रूह ने फ़रियाद की हो.

बाबूजी सुन रहे हैं, देख रहे हैं. ज़रूर इसके पास आइसक्रीम बची हुई है. यह अभी बीता नहीं है. तो – तो क्या जो बीत गया, वह समय ही था? बंटी खेल में हार कर चुपचाप उठ आया है --- बरामदे में. शायद वे बंटी को पास बुला कर उसे कोई रोचक-सी कहानी सुना सकते हैं. शायद वे भीतर जा कर हनी को गणित का कोई ‘खेल’ सिखा सकते हैं. या, बड़े के साथ किसी विस्तृत, सहृदय बातचीत में उसके ऑफिस का विवरण जान सकते हैं, उसकी मानसिक परेशानियों को समझ कर उसे कोई सुलझा हुआ परामर्श दे सकते हैं. स्नेह से बहू के सिर पर हाथ फेर कर अपने वृद्धत्व का अधिकार-गर्व महसूस कर सकते हैं. या, सिर्फ़ बंटी की पढ़ाई का हालचाल पूछ सकते हैं. शायद वे पुकार कर कह सकते हैं --- “आ....इस्क्रीम !” पर वे इनमें से कुछ भी नहीं करेंगे. पंडितजी सच कहते थे क्या? वे पंडितजी वाले ‘वयम्’ (हम) के एक नगण्य सदस्य हैं या कि, आइसक्रीम अभी बची हुई है?

दोपहर के बीतते-बीतते यूँ संवलाये बादलों का अचानक घिर आना कोई नयी बात नहीं है, बल्कि.....