सोमवार, 24 दिसंबर 2012

Violent Manifestations of Gender Discrimination


Dear friends, if I were to show you some newspaper clippings regarding cases of violence against women in different forms, you would in all probability remind me that piling up evidence for something everyone accepts was totally unnecessary and uncalled for. As a matter of fact, such news till recently evoked little emotional or intellectual response, since these incidents, which I choose to describe as violent manifestations of gender discrimination, were hardly ever considered to be shocking, but (and also, maybe, because) they form an enormously sizeable component of the total crimes committed. Undoubtedly, representing such acts as contemptible and shameful in literary writings as well as in social circles and from political podia is the need of the hour. However, one notices that many times the spirit of these representations is more of ascribing the violent manifestations to some quasi-mystical psycho-sexual forces than of identifying the specific ideational patterns having a common source in the problem of inequality and imbalance in man-woman relationship in a socio-historical context.

 

My humble submission is that instead of viewing violence against women as a syndrome caused by mysterious psycho-sexual compulsions in men, we had better understand that imbalance of power between men and women may be a basic cause. If we begin to view such incidents as violent and explosive manifestations of certain ideas which have become a part and parcel of the mindset of men (and, as one should notice, surprisingly also of many women), we are likely to have a more reasonable perspective. Further, it would be helpful to disentangle some distinctly identifiable patterns in the social manifestations of this structured inequality of status. Here I intend to identify three such patterns.

 

One form of oppression can be traced back to the irrational notions and discriminatory attitudes obtaining in tribal and feudal-patriarchal societies, where the very consciousness of inequality as something unjust is largely erased. Inequality may also be disguised or legitimised or even sublimated, as in the case of sati, or as shown in Satyajit Ray's Devi. Even the seemingly refined and sophisticated code of chivalry, focussing on women's 'vulnerability' is not an antithesis to the feudal code.

 

The second pattern of violence emerges from the extended application of the ethos of the market-place to man-woman relationship. Bride-burning, dowry deaths, female foeticide and wife-beating gain social legitimacy under the perverse logic of consumerism. Even women, as mothers-in-law, for example, may become instruments of betrayal, having interiorised the distortions of the consumerist ethos.

 

The third pattern of brutalities against women can be understood in terms of 'ideological' displacement or transposition operating behind gangrapes, custodial rapes, sexual crimes during communal and other kinds of riots and atrocities committed for ethnic vendetta. Scores are settled in such cases by heaping indignities upon women, who are regarded as no better than 'trophies', and by making them scapegoats in combats in which they are not directly involved.

 

It may be pointed out here that very often the vestigial presence of an old pattern causes overlapping and compounding of patterns, which may then reinforce one another. The three patterns identified here are, in my view, more commonly operative in incidents of reported and unreported violence against women than other possible ideational patterns one might locate.  

 

 

 

 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

आ गया हेमंत सुन्दर


कालिदास के ऋतुसंहार (सर्ग ४, श्लोक ८५) में हेमंत ऋतु का वर्णन:

प्रभूतशालिप्रसवैश्चितानि
मृगांगनायूथविभूषितानि
मनोहरक्रौंचनिनादितानि
सीमांतरान्युत्सुकयन्ति चेतः
(श्लोक की अंतिम पंक्ति में एक अशुद्धि है. कम्प्यूटर की विवशता समझें.)

अब इसका हिंदी में भावानुवाद देखिये:

धान की भरपूर फसलों की बिछी है एक चादर
हिरनियों के झुण्ड वन में घूमते निश्चिन्त हो कर
गूंजता है गगन में अब क्रौंच का कलरव मनोहर
जा रहा है क्षितिज के उस पार सब से दूर सत्वर
आ गया हेमंत सुन्दर! 

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

शुक्र है .....

शुक्र है कि बच्चे अभी लड़ते हैं
वे खूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अंदर से निकलता है,
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में, हाथों में
साफ़ दिख जाता है.

कितनी खुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौता-परस्त
शातिर, काइयाँ और घुन्ने!

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अपनी अलिखित कविता के नाम

ओ मेरी अलिखित कविते!
अनिश्चित है तुम्हारा रूप, पर संभावनाएँ अनगिनत हैं.

शब्द, भाषा, छंद के बंधन नहीं तुम पर,
कि तुमने कागज़ों की खुरदरी, मैली, कंटीली-सी ज़मीनों पर
नहीं रक्खे हैं अपने पाँव अब तक,

नहीं तुम जानतीं
उड़ते हुए, स्वच्छंद, बन्धनहीन भावों को
पकड़ कर पंक्तियों में खड़ा करना
और उनको बाँधना
दुस्साध्य है कितना,

कि कैसे कुछ अमूर्त, अनाम-से अनुभाव
हो विक्षिप्त
अपने लिए जा कर खोजते
अपनी सही पहचान,
कि कैसे अनकहा, अव्यक्त रह जाता
सदा वह एक ही कथनीय,

कि कितने कटु कटाक्ष
प्रतिक्रिया के रूप में आ कर
तुम्हारे स्वत्व पर, अस्तित्व पर
उछालेंगे अतर्कित प्रश्न --
"क्यों हो तुम?"

कि वे ही लोग जो अपने विषय में
इस तरह के प्रश्न का उत्तर नहीं थे दे सके अब तक,
वही अब प्रश्न पूछेंगे!

नहीं मैं चाहता सचमुच
कि तुम अलिखित रहो, अनजान, दुनिया से अपरिचित,
परिधियों के पक्षधर हम सब यहाँ पर,
और फिर यूँ भी
तुम्हें आकार देने की
इस आदिम विवशता का
मैं बहुत सम्मान करता हूँ!

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

परदेसी की पाती

दीपावली का पर्व अपने प्रियजनों, पत्नी और बच्चों के साथ मनाया जाता है. पर कोई-कोई परदेसी किसी मजबूरी के चलते दीवाली पर भी अपने घर नहीं लौट पता. ऐसे समय में वह अपनी पत्नी के नाम क्या सन्देश देता है? प्रस्तुत है कविता:

अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?
साँझ ढले कल छत के ऊपर दीप जलाने जाओगी?

सकुचाई-सी कुछ-कुछ ठंडी हवा तुम्हें दुलराने को
केश तुम्हारे चूम-चूम कर मेरी याद दिलाने को
कानों में कुछ कह दे तो क्या मुस्का कर शरमाओगी?

एक दीप नन्हा-सा तुम देहरी के पास सजा देना
बच्चों को सुन्दर फुलझडियाँ और मिठाई ला देना
तुम मजबूरी समझ गयीं पर उनको क्या समझाओगी?

काले नभ के नीचे घर पर दीपों का पहरा होगा
ज्योति-पर्व की रात अकेलापन कितना गहरा होगा
बच्चे तो सो जायेंगे, पर तुम कैसे सो पाओगी?
अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

बरसों पहले की चाँदनी

यह कविता मैंने कॉलिज के दिनों में लिखी थी. आज एक पुरानी डायरी में मिल गयी. 'जैसी है, जहाँ है' आधार पर आप के लिए प्रस्तुत है :

फैली हुई चाँदनी में ये मैली-सी परछाइयाँ
बिखर गयी हैं मौन झील के वक्षःस्थल पर काइयाँ
मस्त झूमते पत्तों के सर-सर स्वर से भी, देखो तो --
अनजानी-सी खड़ी हुई हैं यहाँ वहाँ अमराइयाँ .

अटक-अटक कर पत्तों में से उतर रही है चाँदनी
खेतों में, आँगन में आ कर बिखर गयी है चाँदनी
लटक-लटक कर टहनी पर से, भटक-भटक कर आयी है,
है कोई शर्माती दुल्हिन, अरे, नहीं है चाँदनी .

दूर-दूर तक फीके तारे धुंधले-से हैं जड़े हुए
उधर क्षितिज के पास कहीं पर पेड़ एक-दो खड़े हुए,
मेरे आँगन की मुंडेर से सटी चाँदनी झाँक रही,
नीचे गोरे-से उजास के दो टुकड़े हैं पड़े हुए.

चाँद अकेला घूम रहा है और हवा बहती जाती
चुप-चुप पानी के बहाव को आ कर कुछ कहती जाती
यादों के घावों को भी यह छेड़-छेड़ कर जाती है,
आगे बढती नहीं ज़िंदगी है पीछे रहती जाती

सरक-सरक कर खिड़की से भीतर आती है चाँदनी
चुप रहती, फिर भी लगता है कुछ गाती है चाँदनी
सिरहाने मेरे आ कर सकुचाई-सी है बैठ गयी
कभी-कभी ऐसे भी मुझको ललचाती है चाँदनी.

नहीं चाँदनी, शिशु के अंतर्मन का कोमल भाव है,
नहीं चाँदनी, यह प्रेमी का पहला-पहला चाव है ,
पिघल-पिघल कर अंतरिक्ष से प्यार अछूता टपक रहा
हृदय जिसे दुलराया करता, वह मीठा-सा घाव है.

अति पवित्र कोमल मन की स्वप्निल नारी है चाँदनी
है कोमल, पर कब कठोरता से हारी है चाँदनी?
सभी दिशाएँ गहरे चिंतन में खोई-सी लगती हैं,
गहरे चिंतन की आकुलता-सी प्यारी है चाँदनी.

क्यों न आज सब ओर पड़े इस निर्मल दर्पण में झांकें?
क्यों न इसी सुंदरता की आँखों में हम डालें आँखें?
बस, थोड़ी-सी देर दिखाई देगी ऐसी चाँदनी,
जैसे दूर गगन पर उड़ते जाते पंछी की पांखें!

रविवार, 26 अगस्त 2012

भूख है, तो सब्र कर .....

 
 
"भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ?
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे-बहस ये मुद्दआ !"

दुष्यंत भाई, आपको शिकायत थी कि मुद्दे केवल बहस तक सीमित रह जाते हैं.
 
हमने तो वह काम कर दिया है कि 'न रहेगा बांस, न बजेगी बाँसुरी.' कुछ भी ज़ेरे-बहस नहीं! दूर हो गयी आपकी शिकायत?
 
अब स्थिति आपके ही एक अन्य शे'र तक जा पहुँची है:
 
"यहाँ तो सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा!"

सोमवार, 20 अगस्त 2012

मेरे अनुरागी मन में ...

सत्तर के दशक में एक फिल्म आयी थी -- रजनीगन्धा, जिसमें नायिका विद्या सिन्हा को अमोल पालेकर (मध्यवर्गीय क्लर्क) और दिनेश ठाकुर (ग्लैमरस मीडियाकर्मी) में से एक को चुनना होता है. आज अगर उस फिल्म का नया वर्शन बने, या, नवयुग के अनुरूप 'रजनीगन्धा-२' बने, तो सोचता हूँ, आज की नायिका किसे चुनेगी. शायद उसका निर्णय विद्या सिन्हा वाला नहीं होगा! कहिये, क्या विचार है? अरे, कहीं मैंने कोई नया आइडिया तो नहीं दे दिया! दिनकर जी ने चेताया है -"यों बिखेरता मत चल सड़कों पर अनमोल विचारों को!"  

बुधवार, 30 मई 2012

सोमवार, 7 मई 2012

अंतिम यात्रा से पहले – टैगोर


गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर उन दिनों बहुत अस्वस्थ थे. अपने अंतिम जन्म-दिवस से पहले उन्होंने ६ मई १९४१ की सुबह यह कविता लिखी. इसके इकहत्तर वर्ष बाद कल ६ मई २०१२ कों यह कविता पढ़ कर मुझे इसका हिंदी में काव्यानुवाद करने की प्रेरणा हुई.

मंगलवार, 1 मई 2012

आप ही बताएं


अगर कोई स्वभाव से अनागत-विधाता न हो, उसमें प्रत्युत्पन्न-मति वाली क्षमता भी न हो, तो यद्भविष्य के रूप में जीने के अलावा वह और क्या कर सकता है? क्या कोई चौथी सम्भावना भी होती है?

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

तौलिया बोला

(एक झकाझक साफ़-सुथरा तौलिया शोरूम से निकला और बाथ-रूम में नहीं पहुंचा. बल्कि वह यक-ब-यक ऐसी हालत में देखा गया कि पानी-पानी हो गया. ऐसा लगा मानो खुद को ढकने के लिए कोई तौलिया ढूँढ रहा हो. दर-असल हुआ यूँ कि टीवी के बीसियों कैमरों की चुंधियाती रोशनियाँ उस पर पड़ राही थीं और उसे किसी घोटालेबाज की पहचान छिपाने के लिए अदालत में ले जाया जा रहा था. ऐसे में बेचारे तौलिए ने क्या बयान दिया? पढ़िए इस छोटी-सी कविता में. --- दिनेश दधीचि)

तौलिया बोला—“सभी के काम आता हूँ.

ढाँपता हूँ, पोंछता हूँ, मैं सुखाता हूँ.

सोचने का काम तो इन्सान करता है.

सोचना उसका मुझे हैरान करता है.

इतनी हलचल हडबडाहट किस लिए आखिर?

कैमरों की चौंधियाहट किसलिए आखिर?

मैं भी हूँ पतलून कोई, कोट, शर्ट, कमीज़?

देखिये, कुछ सोचिये, मैं तौलिया नाचीज़.

यूँ अदालत में न ले कर जाइए मुझको.

कम-से-कम कुछ काम तो बतलाइये मुझको.

कौन-सा मुझको करिश्मा कर दिखाना है?

फैसला कीजे, मुझे किस काम आना है?

ढाँप कर चेहरे कभी थकता नहीं हूँ मैं.

कारनामे पोंछ पर सकता नहीं हूँ मैं !

रविवार, 8 अप्रैल 2012

Is interest in literature waning?

Why is the younger generation losing interest in literature? This question and some others related to this were posed to me by Mr. Parveen K. Modi of Haryana Review. My answers in that interview have been published in April 2012 issue of Haryana Review. Here are the questions and answers:

Q1: The younger generation is gradually losing interest in literature. Being the Seniormost Professor in the English Department of Kurukshetra University, do you agree with this assessment?
Ans.: The expression ‘younger generation’ is quite a broad one, but one cannot fail to notice that the lure of well-paid jobs in areas like computers and management has weaned away the younger generation from the pursuit of academically oriented literary studies. The kind of students who used to join postgraduate courses in English literature, for example, have now shifted to other areas that promise lucrative jobs and bright careers. Besides, in a general sense, the space for literature in magazines and newspapers also has been visibly shrinking during the past two decades. Interest in literature cannot be separated from the cultural values of a society. We cannot expect it to remain at the same level, when cultural values are changing so fast and so drastically. There is also alteration in the quality of interest that is discernible now with regard to literature among the youth. It rarely borders upon passion. There are fewer people having a literary sensibility. In my first lecture in the new session once I asked students to tell me why they had joined the course. I expected some of them to speak of the passion for literature or reading books. The one who had been at the top of the merit list replied, “To become lecturers, Sir.” She had revealed the truth.

Q2: Do you think teaching style and method are to blame for this decline in interest? If this is not true, what in your view are the reasons? 
Ans.: Interest in literature is not so much consciously taught as cultivated. The process of developing an interest in literature is similar to the way one’s cultural values are assimilated in the personality. That’s why the experiences of a person during the formative years of adolescence play a significant part in this process. The role of the teacher has also undergone a sea change now. Earlier children and teenagers learnt these things from their parents and teachers, but this role is now played instead by TV channels, ads, movies, and other similar media, which are essentially cultural in nature. Teaching style and method, thus, share only an insignificant part of the blame.

Q3: Does commercialisation of education also take some part of the blame? Some say the level of teachers earlier was better who would make the job of teaching literature interesting. Do you agree?
Ans.: One outcome of the commercialization of education as it is operative in India has been an imbalance between the selection of faculty and creation of infrastructure. There is an overemphasis on providing facilities, which are non-essential, and the essential need for capable teachers has been largely neglected. In the choice of teachers, who are to be ‘hired’, the logic of ‘minimum pay and maximum work’ has been the general policy. Unfortunately, this does not work, since quality inevitably suffers if you insist on making compromises necessitated by the desire to make immediate profits. This has disastrous consequences, and leads to a decline in the quality of the ‘service provided’. The earlier teachers are remembered today because they possessed not only a rich treasure of knowledge but also the ability to communicate in an interesting way. Their interest in literature, for instance, was imperceptibly passed on to the students, who fell in love with the subject. Once you begin to enjoy what you do, the task becomes a cakewalk. We developed a passion for literature, because their interest was somehow infectious.

Q4: In today’s fast-paced life when SMS language is becoming the lingua franca of the younger generation, what can be done to make the students take interest in literature?
Ans.: Personally I subscribe to the view that now there is perhaps greater need for literature and art, poetry and fiction and cinema of good quality. Literature has a way of re-inventing itself in keeping with the changes that occur as time passes. After the Second World War there were people who held the apocalyptic view anticipating the end of fiction or poetry. But they have been proved to be wrong. However this does not mean that one should be complacent about it. Definitely there are ways to ensure students’ enthusiastic involvement in literature. We must pay attention not only to the formal education, but also to the various ways in which informally a person is shaped by early impressions. Interest in literature has to be part of the process of inculcation of values, of what we describe as samskaras. Literature operates at a deep level, and its appeal is emotional, intellectual, and even spiritual. By the time a student reaches the stage of joining a college or university, his aptitude has already been moulded. Therefore what we can do at this stage is to ensure sustenance and congenial environment for growth of whatever sprouts and saplings of literary taste exist. Impetus can be provided. It is nothing short of tragic, if literary taste wanes or dries up for want of care and attention in our educational institutions. Unfortunately this is happening, and we must concentrate on this aspect. Teachers can be quite helpful, though some support from the system would be equally relevant.

Q5: Suggest other ways of improving things to save literature from getting confined to the confines of archives. 
Ans.: Yes. There are technological means and resources which facilitate the acquisition, availability, and dispersal of literature. Access to these means is also easy and they are far more efficient and user-friendly than at any other time in the past. Means for popularizing literature are readily available now. Literature is thriving in blogs and e-books. A look at the statistics about literary books purchased through flipkart etc. would stand testimony to the fact that literature is not getting confined to archives. In fact, now the problem is to separate the grain from the chaff, the superior from the trash. In view of this, developing the taste for literature has inevitably become linked with cultivating a sense of discrimination, which is not based on whims and biases, but as far as possible, on objective criteria. How do we achieve this? Shall I suggest a simple approach? Let us consciously cultivate the questioning attitude. For instance, asking ‘why’ and addressing the questions to ourselves. That, in fact, is the way we actually think. Enthusiasm is helpful for a cause, but a sense of direction and streamlining are essential. So far as administrative and social measures are concerned, I am ill equipped to deal with them.  

DINESH DADHICHI

सोमवार, 9 जनवरी 2012

मुझे उस कविता की तलाश है

साठ के दशक में जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब हमारी हिन्दी की पुस्तक में थी वह कविता। आज मुझे उसकी पहली दो पंक्तियाँ ही याद हैं। शायद यह सामान्य-सी कविता ही रही होगी। पर आज मन चाहता है पूरी कविता पढ़ने को। जहां तक मुझे याद है, यह विख्यात छायावादी कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की रचना थी:
"जन-पर्व मकर-संक्रांति आज।
उमड़ा नहान को जन-समाज। ..."
आप में से किसी को यह कविता मिले, तो मुझे अवश्य उपलब्ध करवाएँ।
साथ ही, मैं यह महसूस कर रहा हूँ कि हमारा अपना साहित्य इंटरनेट पर आसानी से अब तक भी हम उपलब्ध नहीं करवा सके हैं। हमें इस विषय में अभी बहुत कुछ करना है। आपका क्या विचार है?