शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

छोड़ो छोड़ो

खानपान पहनावा लहजा चाल-चलन
'ग्लोबल' हों; पिछड़ेपन का दामन छोड़ो ।
प्रेमचंद टैगोर भारती औ' ग़ालिब
इनको भूलो, तुलसी औ' कम्बन छोड़ो ।
यानी ज़िन्दा रहने को बेशक रह लो --
लेकिन साँसें दिलो-जिगर धड़कन छोड़ो ।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

जन्म-दिवस

अपना अगला जन्म-दिवस मैं
कुछ इस तरह मनाऊंगा
घर के आँगन के कोने में
कोई पेड़ लगाऊंगा ।

घर में जो बाई आती है
उसके घर जाऊंगा मैं
खूब मिठाई उसके बच्चों
को दे कर आऊंगा मैं ।

रंगों का डिब्बा भी दूँगा
कापी, पेंसिल, पेन, किताब ।
मेरे अगले जन्म-दिवस की
ऐसी है योजना, जनाब !

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

गरम पराठे

मम्मी, आज नाश्ते में मैं
गरम पराठे खाऊंगा ।
उसके बाद गिलास दूध का
गट-गट-गट पी जाऊंगा ।

रोज़ सवेरे जल्दी-जल्दी
होना पड़ता है तैयार ।
छह दिन तक ऐसा होता है
तब जा कर आता रविवार ।

छुट्टी के दिन तो मत रोको
हँसने और हँसाने से ।
सफल आज की छुट्टी होगी
गरम पराठे खाने से !

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

अपना पथ है ...

अपना पथ है ऊबड़-खाबड़, जग की बँधी-बँधाई लीक ।
क्या कहते हो ? साथ चलोगे ? सोच लिया है ? बिल्कुल ठीक ।

चल खोखे पर कड़क चाय के घूँट भरें, कुछ बात करें
नहीं बोलना तो कम-से-कम बैठेंगे फिर से नज़दीक ।

तू जादूगर-सा शायर है, मन को मोहित करती हैं --
मिसरी जैसी मीठी-मीठी बातें तेरी बड़ी सटीक ।

बड़े नफ़ीस लोग हैं, उनकी महफ़िल में अपना क्या काम ?
उन्हें चाहिए चिकनी-चुपड़ी, अपना तो लहजा निर्भीक ।

मेरा उसको 'पागल' कहना, ठीक वही तेरा ऐलान --
बड़ा फ़र्क है इन दोनों में, है चाहे बिल्कुल बारीक ।

कहाँ ग़ज़ल का ऊँचा रुतबा, कहाँ तेरे बौने अल्फाज़
इसका दामन छू न सकेगा सीख के तू कोरी तकनीक ।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

पाँच छुट्टियाँ

पाँच छुट्टियाँ एक साथ थीं, काम बंद था
था बिल्कुल संयोग मगर हमको पसंद था
यही पूछते थे बाबू, अफ़सर, दारोगा--
'अगली बार बताओ ऐसा फिर कब होगा ?'

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

विष्णु जी के लिए...

कलाकार के संघर्षों के साक्षी, तुमने -
अमर मसीहा आवारा की कथा कही है।
गहन विचारों के शिल्पी अप्रतिम अनूठे,
नहीं रहे तुम; 'धरती अब भी घूम रही है' !

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

आज तक क्या कभी...

आज तक क्या कभी लड़े मुर्दे ?
देख, निश्चेष्ट हैं पड़े मुर्दे

ज़िन्दगी की तलाश में कब तक
यूँ उखाड़ेगे हम गड़े मुर्दे ?

नहीं इतिहास कब्रगाह फ़क़त
गो समेटे है यह बड़े मुर्दे ।

बूँद अमृत की एक बेचारी
अनगिनत घेर कर खड़े मुर्दे ।

साँस लेते हैं, चलते-फिरते हैं
ऐसे भी राम ने घड़े मुर्दे ।

जान
फूँकी 'दधीचि' ने इनमें
शब्द थे ये गले-सड़े मुर्दे ।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

अख़बार

मैं भी अब अख़बार पढूंगा ।

साइकिल पर मैं चढ़ लेता हूँ
चित्रकथाएं पढ़ लेता हूँ
सीख गया हूँ इतनी चीज़ें
खुद कहानियाँ गढ़ लेता हूँ ।

रोज़ बदलता रहता है यह,
कैसा है संसार, पढूंगा .

दंगा बाढ़ चुनाव कहीं पर
हड़तालें घेराव कहीं पर
खेलों की है हार-जीत तो
बाज़ारों के भाव कहीं पर .

कैसे चलती है भारत की
चुनी हुई सरकार, पढूंगा .

मैं भी अब अख़बार पढूंगा .

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

वो क्या बनेगी ?

क्या छोड़ सब विशेषण कोई क्रिया बनेगी ?
या जग को जगमगाए, ऐसा दिया बनेगी ?
नन्ही अबोध बच्ची यह स्वप्न देखती है--
इक रोज़ वो भी शायद 'मिस इंडिया' बनेगी !

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

नेता उवाच

कुर्सी के चारों ओर नाच
बेदम हो कर नेता उवाच
फिर शुरू हुआ संघर्ष सुनो
आया चुनाव का वर्ष सुनो
संधान कोई तो बाण करो
बेहतर छवि का निर्माण करो
खोजो खोजो कुछ जनाधार
या झूठा-सच्चा हो प्रचार
लेकिन 'दधीचि' का यही तर्क
प्यारे वोटर, रहना सतर्क !