बुधवार, 16 जून 2010

सौवीं पोस्ट में कुछ चिन्ता कुछ चिन्तन

जटिल-कुटिल संदेह और सन्दर्भ हीन शंकाएँ
ऐसा कुछ हो जिस से ये आकारबद्ध हो जाएँ .
प्रायः असहनीय हो जाता धुंधलेपन का बोध
अस्पष्टता अनिश्चितता का, खालीपन का बोध .
चुभती रहतीं मन में जैसे काँच की तीखी नोकें !
किस उपाय से हम प्रतिकूल समय की धारा रोकें ?
चिंतन का क्या अर्थ? कौन सी दिशा और क्या परिणति ?
कैसे तर्क? कहाँ आस्थाएँ और कहाँ की उन्नति?
प्रश्नों की चींटियाँ रेंगती रहतीं सदा बदन पर
उखड़-उखड़ कर गिरते जाते हैं चिरस्थापित उत्तर.
टुकड़े-टुकड़े अर्थ-हीनता का होता आभास
उससे भी चिपके रहने का नहीं हमें अभ्यास .
भ्रमित-विवश है व्यक्ति और उद्देश्यविहीन समाज
इस घातक, मर्मान्तक पीड़ा का क्या करें इलाज ?

रविवार, 6 जून 2010

बारिश आने ही वाली है

बारिश आने ही वाली है .

तपी हुई थी धरती ऐसे
तवा आग पर रक्खा जैसे
तभी हवा का झोंका आया
चला किधर से? आया कैसे?

वह देखो तो आसमान पर
घिर आयी बदली काली है .

गर्मी का इलाज करने को
मन की बेचैनी हरने को
बादल के रथ पर आयी है
खेतों में पानी भरने को .

पेड़ झूमते हाथ हिलाते
झुकी हुई डाली-डाली है .

बारिश आने ही वाली है !