शुक्रवार, 19 जून 2009

नाच रहे कंकाल

नाच रहे कंकाल, घूमते काले-पीले प्रेत यहाँ ।
अमृतत्व के लिए भटकते हैं ज़हरीले प्रेत यहाँ ।

बरसों से बाधित-पीड़ित हैं इस बस्ती के लोग, सुनो !
है कोई जो मन्त्र-विद्ध कर ले या कीले प्रेत यहाँ ?

भुतहा खंडहरों पर होता निष्कंटक शासन इनका
नहीं बदलने देते कुछ भी बड़े हठीले प्रेत यहाँ ।

दुर्दिन में कुदरत भी देखो, कैसे भेष बदलती है
डायन बन जाती हैं नदियाँ, लगते टीले प्रेत यहाँ ।

विडम्बना प्यासी आँखों की अंधकार में क्या कहिये ?
जिधर उठाई आँख नज़र आये चमकीले प्रेत यहाँ ।

मंगलवार, 16 जून 2009

आज नहीं आयी

आज नहीं आयी, आयेगी कल बारिश ।
इसी तरह हर रोज़ कर रही छल बारिश ।

विरही को तो यह तड़पाती है लेकिन -
हलवाहे की मुश्किल का है हल बारिश ।

बादल आँधी हवा सभी यूँ तो आये
तरसाती ही रही हमें केवल बारिश ।

देख, पपीहे, दीन वचन मत बोल यहाँ
ऐसे नहीं किया करते बादल बारिश ।

नहीं सिर्फ़ तन-मन में ठंडी आग बनी
चूल्हे कई जलायेगी शीतल बारिश ।

लोग कर रहे हैं कुदरत का चीर-हरण
हरियाली लाती जंगल-जंगल बारिश ।

अस्त हो रहा सूरज भी मुस्काएगा
लहराएगी सतरंगा आँचल बारिश ।

रविवार, 7 जून 2009

जून का महीना

बिजली चली गयी हैं, पानी मिलता है कहाँ
ठंडी हवाओं के बिना जीना कोई जीना है ?
जंगल बना है कंक्रीट का जो तप रहा
मन में बेचैनी और तन पे पसीना है ।
पानी पी-पी कर गरमी को सब कोसते हैं
और कहते हैं अभी और पानी पीना है ।
छीना सुख-चैन आया जब से मगर सुनो,
जून का महीना मानसून का महीना है !

शुक्रवार, 5 जून 2009

जहाँ भी गये हो

जहाँ भी गये हो, साथ नफ़रत ले के चले
किया हैं विनाश जहाँ रखा पग तुमने ।
भाले, ताले, तीर, शमशीर औ' ज़ंजीर बने,
सब को दीवारों से किया अलग तुमने ।
पशु या विहग, पेड़-पौधे डगमग हुए,
विष-भरी की धरा की रग-रग तुमने ।
प्लास्टिक की बनी हैं करधनी धरती की,
कितनी लगन से सजाया जग तुमने !