सोमवार, 28 सितंबर 2009

मीडिया हो या नेतागण

मीडिया हो या नेतागण -- एकसूत्री कार्यक्रम एक शे'र में (स्व० दुष्यंत कुमार से क्षमा-याचना सहित)

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना ही मकसद है मेरा
मेरी कोशिश है कि मेरी जेब भरनी चाहिए ।

मर्मस्थल पर वार हो रहे ...

मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं ।
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं ।

आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं ।

हिलने लगते राजसिंहासन, धरती करवट लेती है,
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं ।

कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊंचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी यह दरख्वास्त क़ाबिले-गौर नहीं ?

इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं ।

ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें
ख़ुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं ?

सोमवार, 21 सितंबर 2009

इस हद तक

आसमान बदरंग हुआ था
दोनों तरफ़ 'अपार्टमेंट्स' थे
सामने ख़ाली सड़क ।
सूनापन था भीतर-बाहर
चौबीस घंटे चलती-फिरती
हँसती-गाती तस्वीरों के बावजूद
मन था उदास ।
ढल चुकी थी उम्र उसकी
और जा चुके थे बच्चे परदेस ।

अनायास भर कर उसाँस
जब दुआ के लिए
दोनों हाथ उठे ऊपर
तो 'डि-ओडरेंट' का ही विचार
कौंधा भीतर !

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

हिन्दी दिवस पर सम्मान

सब हिन्दी-प्रेमी और साहित्य-प्रेमी चिट्ठाकारों के साथ यह समाचार साझा करना चाहता हूँ कि हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मलेन, सिरसा (हरियाणा) ने नाचीज़ को हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की सेवाओं के लिए प्रशस्ति-पत्र, अंगवस्त्र, स्मृति-चिह्न आदि प्रदान कर के सम्मानित किया है ।

कभी मिलती नहीं

व्यस्तता के व्यूह में फुर्सत कभी मिलती नहीं ।
खेल लें हँस लें यहाँ, मोहलत कभी मिलती नहीं ।

कितनी दीवारें बनाई जा रहीं उनके लिए
जिनको अपने सर के ऊपर छत कभी मिलती नहीं ।

वक़्त के विश्रामघर में भीड़ भी है शोर भी
ज़िन्दगी की राह में राहत कभी मिलती नहीं ।

शुतुरमुर्गों से भला तूफ़ान की क्या पूछिए ?
इनमें चिंता की बुरी आदत कभी मिलती नहीं ।

नया सूरज मैं कोई चिपका तो दूँ आकाश पर
अजनबी को पर यहाँ इज्ज़त कभी मिलती नहीं ।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

ऐसा क्यों होता है कि....

अगर अंग्रेज़ी का अध्यापक हिन्दी में हस्ताक्षर करे, तो सब चकित हो कर पूछते हैं , "क्यों?" पर हिन्दी का अध्यापक अगर अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करे, तो कोई चकित नहीं होता ? शायद हिन्दी में हस्ताक्षर करना वैसा ही है, जैसा अंगूठा लगाना । हिन्दी दिवस पर ज़रा विचार करें ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

बेखयाली

हम अक्सर लपक कर
जा रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम चाहते हैं
पर जहाँ हम अंततः पहुँचते हैं
वहां वे नहीं होते,
सिर्फ़ उनकी छायाएँ होती हैं ।
यह काफ़ी दुखद स्थिति होती है
पर इससे भी ज़्यादा दुखद वह होता है
जो इस सारी प्रक्रिया में
अनजाने घटित होता रहता है ।
यानी जब हम लपक कर
बढ रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम प्यार करते हैं
उसी समय --- ठीक उसी समय
बेरहमी से नहीं, सिर्फ़ बेख़याली में
हम रौंद रहे होते हैं
उनको जो हमें प्यार करते हैं ।
वैसे यह बेख़याली बेरहमी से
कम तो नहीं होती !

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षक दिवस पर

यद्यपि मैं बिल्कुल ठोस, भरा-पूरा
और साबुत दिखायी देता हूँ,
मेरी एक प्रतिमा खंडित हो चुकी है।
मैंने उसे खंडित होते
लगातार, खुली आँखों से देखा है।
दरअसल ऐसा एकदम से नहीं हुआ,
रातोंरात भी नहीं,
बल्कि थोड़ा-थोड़ा कर के
पिछले कई बरसों में हुआ है।
एक बार जब मैंने कहा
"कहते तो हैं पर पक्का पता नहीं"
प्रतिमा में हलकी सी दरार आयी ।
दूसरी बार जब मैंने कहा
"पक्का पता है लेकिन ऐसा कहते नहीं"
सुन कर बच्चे चौंके ।
तीसरी बार जब मैंने कहा
"यह भी ठीक है और वह भी"
वे बोल उठे -- "अच्छा जी ?"
फिर तो चौथी बार मैंने कहा
"ठीक-ग़लत के पचडे में मत पडो"
पाँचवीं बार मैंने कहा
"कुछ फर्क नहीं पड़ता
कुछ नहीं होने वाला"
यानी हर बार सिलसिलेवार
उस प्रतिमा को खंडित होते मैंने देखा
अपने बच्चों की आँखों के अन्दर
उस प्रतिमा के साथ और बहुत कुछ टूट गया
मेरे बच्चों के भीतर
बेआवाज़ लेकिन सिलसिलेवार ।
मैं यूँ ही तो नहीं इतना शर्मसार !

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

सवाल

पक कर सेब गिरा डाली से

आया नीचे धरती पर ।

"ऐसा क्यों होता है आख़िर?"

न्यूटन ने माँगा उत्तर ।

क्यों कैसे कब क्या और किसका

किसको कहाँ ज़रूरी है ।

नासमझी और सच्चाई में

केवल इतनी दूरी है ।

देखो और सवाल उठाओ

सोचो क्या उत्तर होगा ।

तभी समस्याएं सुलझेंगी,

यह जीवन सुंदर होगा ।