शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ऐसी क्या जल्दी है लेबल चिपकाने की ?

अपने संपर्क में आने वाले लोगों के बारे में कोई-न-कोई राय बनाने के लिए हम अक्सर शोर्ट कट ढूँढ लेते हैं. किसी व्यक्ति की पारिवारिक या आर्थिक पृष्ठभूमि, भाषा, धर्म, जाति के आधार पर ही हम जल्दबाजी में अंतिम निर्णय लेने को तैयार रहते हैं. इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में हम हेयर-स्टाइल, कपड़ों, जूतों आदि को देख कर ही ऐसा करने लगे हैं. इस तरह इन्सान को ठीक से देखे-परखे बिना ही उस पर लेबल लगा देने की प्रवृत्ति अब बढती जा रही है. इसके लिए हम जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा आदि से जुड़े अपने पूर्वाग्रहों को आधार बनाते हैं या बाहरी दिखावे और चमक-दमक को. ज़ाहिर है कि हमारे नतीजे अक्सर गलत होते हैं. फिर भी हम लेबल चिपकाने की इस आदत को छोड़ते नहीं.

यह महज़ बौद्धिक आलस्य का सवाल नहीं है. इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप हमारे समाज में विखंडन और विभाजन को बढावा मिलता है. सहनशीलता कम होती जाती है. आपसी संदेह और गलतफहमियां बढ़ने लगती हैं. आदमी-आदमी के बीच अदृश्य दीवारें खड़ी हो जाती हैं.

जब हम किसी से मिलें, तो उसके बारे में खुला दृष्टिकोण रखें. अगर ज़्यादा निकटता पसंद न हो, तो कम-से-कम अनावश्यक लेबल लगाने से परहेज़ करें. केवल इतना कर लें, तो यही महत्त्वपूर्ण समाजसेवा होगी. हमारे समाज की वर्तमान स्थिति में इसकी आज बड़ी ज़रूरत है.