गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

उनके कपड़ों में जेब क्यों नहीं ?

आज सुबह श्रीमती जी ने जब काम वाली बाई को उसका मासिक वेतन देना चाहा, तब वह अभी काम कर ही रही थी. उसने कहा, "आंटी, आप ये सामने टेबल पर रख दीजिये. मैं जाने से पहले ले लूंगी." उसकी इस बात से अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया कि उसके कपड़ों में कोई जेब नहीं ,जिसमें ये पैसे डाल सके. पुरुषों के वस्त्रों में जेब अक्सर होती है, जब कि महिलाओं के वस्त्रों को जेब-रहित बनाया जाता है. जेब वास्तव में चीज़ों पर हमारे अधिकार का प्रतीक है. ऐसा लगता है कि शुरू से पुरुषों को ही चीज़ों पर अधिकार के लिए पात्र समझा गया होगा और महिलाओं को इस के लिए सुपात्र न मान कर उनके वस्त्रों को जेब-रहित बनाया गया. पुरुषों को महिलाओं पर तरजीह देने का यह दृष्टिकोण काफी गहरे तक हमारी संस्कृतियों में समाया हुआ है. मैं यह जानने को उत्सुक हूँ कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं.

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

यादों की खिड़की में

सकुचाई पंखुड़ी को
रस में भिगो कर ज्यों
भावुक चितेरे ने चित्र दिए आँक

लौट रहीं लहरें किनारे के पास
स्वप्नलीन विरहिन है बैठी उदास
आँखों में प्यास और भीतर विश्वास
अनदेखे हाथों ने
रैना के आँचल पर
झिलमिल सितारे फिर आज दिए टाँक

फैल रहा आँचल या सुधियों का जाल
खुले हुए बाल और हाथों पे गाल
मन में उग आये हैं सैकड़ों सवाल
यादों की खिड़की में
फिर से मुस्काई है
दूध धुले चंदा की गोरी-सी फाँक

हो कर तल्लीन रही कितना कुछ सोच
लगते हैं व्यर्थ रंग, रूप और लोच
गदराया गात करे खुद से संकोच
हवा मगर आती है
तन को सिहराती-सी
करती है उत्सुकता से ताक-झाँक.

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

मिलन का यही स्थान

मिलन का यही स्थान तय तो हुआ था
सुनिश्चित दिवस और समय तो हुआ था.

नहीं हो सका उनसे परिणय तो क्या ग़म ?
ये क्या कम है उनसे प्रणय तो हुआ था.

रहा पूर्णतः मौन बाहर से लेकिन
वो निर्दय हृदय में सदय तो हुआ था.

ये क्यों बेसुरे स्वर उभरने लगे हैं ?
लयों का परस्पर विलय तो हुआ था.

बनायेंगे फिर नीड़ तिनके जुटा कर
यहाँ चक्रवाती प्रलय तो हुआ था.

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

फूलहिं फलहिं न बेंत

दोपहर के बीतते-बीतते यूँ संवलाये बादलों का अचानक घिर आना कोई नयी बात नहीं है. बल्कि---अच्छा ही तो लगता है. दिन-भर चमकीली धूप के हृदयहीन प्रहारों के बाद ठंडक और गीलेपन का यह सुखद-सुहाना स्पर्श बड़ा मधुर और स्मरणीय अनुभव है. होना तो चाहिए, कम-से-कम.


बाबूजी की कुर्सी बरामदे में रक्खी रहती है. धूप हो, बरसात हो, सर्दी हो या गर्मी. इसका बेंत वर्षों से इस तरह के आकस्मिक और क्रमिक परिवर्तनों का अभ्यस्त हो चुका है. बाबूजी की तरह. लेकिन, बड़ा महत्वपूर्ण अंतर है एक. इस कुर्सी की उपयोगिता कम नहीं हुई है. बाबूजी के जरा-जर्जर शरीर को यह आज भी उसी निर्लिप्त भाव से ग्रहण करती है, जिस भाव से कभी उनके कर्मठ, संघर्षशील शरीर की श्रमजन्य थकान मिटाती थी. और बूंदाबांदी के इस मौसम में कुर्सी पर बैठे इस बूढ़े व्यक्ति की उपयोगिता.....

बादल घिरते आ रहे हैं. हवा में शीतलता व्याप गयी है. तेज़ क़दमों से घर लौटते इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर दिखाई दे जाते हैं. ऊपर रोशनदान में चिड़ियों की चीं-चीं का स्वर. घरेलूपन की गर्माहट और सुरक्षा.

कुर्सी की जगह चारपाई भी उपलब्ध हो सकती थी. पर उन्होंने स्वेच्छा से बहुत सारी सुविधाएँ छोड़ भी तो दी हैं. शुरू से ही यही करते आये हैं. बड़े ने जब कभी उनके आराम का या खानपान का ध्यान न रखने के लिए औपचारिकतावश बहू को सामान्य-से शब्दों में भी डपटना चाहा, तभी उन्होंने मुस्करा कर इन सभी सुविधाओं के अनावश्यक ---
बल्कि, हानिकारक ---होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं.

पर जब वह उनके कपड़ों पर, उन्हें पहनने के ढंग पर आपत्ति करता है, तब शायद कोरी औपचारिकता नहीं होती. आखिर उसके मित्र और मेहमान क्या सोचेंगे, अगर बाबूजी ने कपडे ढंग से नहीं पहने, तो ? यूँ देखा जाए तो यह भी औपचारिकता का ही बदला हुआ रूप है. उनके प्रति न सही, अपने मित्रों के प्रति.

बाहर गीली मिट्टी की गंध वातावरण में भरती जा रही है. आसमान की नीलिमा धुल गयी-सी लगती है. बूँदें बे-आवाज़ झरने लगी हैं. आसपास के मकान अजीब-सी ख़ामोशी में डूब गये हैं.

उनके पास उदास होने के लिए कोई ठोस कारण नहीं हैं. सब कुछ ठीक-ठाक है. बस, एक व्यर्थता के एहसास को छोड़ कर. अपनी व्यर्थता, अपने होने की व्यर्थता. अपने केन्द्र से हटा कर एक कोने में डाल दिए जाने की अनुभूति. अपने अवांछित, अनपेक्षित होने की पीड़ा. मुँह से कोई कुछ नहीं कहता. सभी जैसे कतरा कर चले जाते हैं.

बंटी और हनी अंदर ‘चेस’ खेल रहे हैं. उनकी आवाजें बीच-बीच में उत्तेजित, व्यंग्यपूर्ण, उल्लसित या गर्वित हो जाती हैं. बाबूजी जैसे पूरे वातावरण से असंबद्ध हैं. उनकी उपस्थिति की निरंतरता कोई ध्यान देने लायक बात नहीं है. इधर के कमरे में सुधा को मास्टर साहब कैमिस्ट्री पढ़ा रहे हैं. कैटलिस्ट. रासायनिक क्रिया में इसकी उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती. परन्तु यह क्रिया की गति बढ़ा देता है. अर्थात, इसकी उपस्थिति से क्रिया जल्दी पूरी हो जाती है. सारी क्रिया के दौरान इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता. यहाँ भी महत्त्वपूर्ण अंतर है. वे इस घर में, इस परिवार में होने वाली क्रियाओं में कहीं कैटलिस्ट भी नहीं हैं.

बादल बाहर पानी बरसा रहे हैं. पानी, यानी अमृत, सुधा. सुधा इस साल सीनियर सैकंडरी कका इम्तिहान दे रही है. बादल सुधा बरसा रहे हैं. उनकी कुर्सी का बेंत कमज़ोर पड़ गया है. आँगन के पास लटकी बेल की गीली पत्तियां ज्यादा हरी लगने लगी हैं. आसपास जीवन चल रहा है. सब कुछ गति में है. उनके बच्चे, उनके बच्चों के बच्चे फल-फूल रहे हैं. उनकी स्वर्गवासिनी पत्नी रामचरितमानस का नियमित रूप से पाठ किया करती थी. उन्होंने सुना था एक दिन --- “फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद.”

उनके फलने-फूलने का समय बीत गया. बहुत पहले, कई-कई साल पहले, स्कूल में पंडितजी पढ़ाते थे --- “कालो न यातो, वयमेव याताः.” समय नहीं बीतता, हमीं बीत जाते हैं. शायद वे स्वयं बीत गये. वे पंडितजी भी बीत गये होंगे. उन्होंने अपना बीतना स्वीकार लिया होगा. कुछ भी तो ऐसा नहीं है चारों ओर, जो इस तरह का स्वीकार न मांगता हो; जो बाबूजी के, बाबूजी जैसे अनगिनत व्यक्तियों के बार-बार हठपूर्वक उछाले गये नकार को, विरोध को सहन करता हो. जड़ प्रकृति के क्रिया-कलापों में, समय और प्रारब्ध सरीखी अमूर्त सत्ताओं में भी एक तरह का अप्रतिहत अहं है, एक तरह की अनिवार्यता है.

शतरंज के खेल में गरमा-गर्मी आ गयी है. बंटी की आवाज़ से लगता है, उसका पक्ष कमज़ोर पड़ गया है. उसका बादशाह व्यूह में घिर गया लगता है. बचने के रास्ते जैसे लगातार संकरे होते जा रहे हैं, सिमट रहे हैं. बाहर सड़क पर धुंधलका-सा घिर आया है. बारिश न भी होती, तो यूँ भी शाम को धुंधलका स्वाभाविक रूप से घिरता ही. बाबूजी रिटायर न भी होते तो यूँ भी बुढ़ापा आता. वे बीतते. शतरंज के बादशाह भी बीत जाते हैं. खैर, वह हार-जीत का सवाल है. जीत कर भी, लेकिन, बादशाह मैदान छोड़ जाते हैं. जाते तो हैं, जीत कर या हार कर.

दिन भर कितनी तो गर्मी पड़ी. पसीने की चिपचिपाहट. पपड़ाये होठों की अनबुझ प्यास. भीतर जाने कैसी-कैसी घबराहट. बाहर धूप का विस्तार. छाहौं चाहति छाँह. आइसक्रीम वाले की बन आयी होगी.

सड़क पर जा रहा है आइसक्रीम वाला. पता नहीं क्यों, एक बार रुक कर गुमसुम-सी टपकती बूंदों के बीच वह भर्राये गले से थकी-थकी दयनीय आवाज़ में पुकार उठता है --- “आ...इस्क्रीम !” आसपास के मकानों का एक बार जायजा लेता है. स्पंदन? गति? प्रत्युत्तर? प्रतिक्रिया? कुछ नहीं होता. आवाज़ बेहोश हवाओं की परतों में, बूंदों के पारदर्शी व्यूह में कहीं घिर कर दम तोड़ देती है. गोया सुनसान जंगल में रात की भयावह चुप्पी में किसी भटकी हुई रूह ने फ़रियाद की हो.

बाबूजी सुन रहे हैं, देख रहे हैं. ज़रूर इसके पास आइसक्रीम बची हुई है. यह अभी बीता नहीं है. तो – तो क्या जो बीत गया, वह समय ही था? बंटी खेल में हार कर चुपचाप उठ आया है --- बरामदे में. शायद वे बंटी को पास बुला कर उसे कोई रोचक-सी कहानी सुना सकते हैं. शायद वे भीतर जा कर हनी को गणित का कोई ‘खेल’ सिखा सकते हैं. या, बड़े के साथ किसी विस्तृत, सहृदय बातचीत में उसके ऑफिस का विवरण जान सकते हैं, उसकी मानसिक परेशानियों को समझ कर उसे कोई सुलझा हुआ परामर्श दे सकते हैं. स्नेह से बहू के सिर पर हाथ फेर कर अपने वृद्धत्व का अधिकार-गर्व महसूस कर सकते हैं. या, सिर्फ़ बंटी की पढ़ाई का हालचाल पूछ सकते हैं. शायद वे पुकार कर कह सकते हैं --- “आ....इस्क्रीम !” पर वे इनमें से कुछ भी नहीं करेंगे. पंडितजी सच कहते थे क्या? वे पंडितजी वाले ‘वयम्’ (हम) के एक नगण्य सदस्य हैं या कि, आइसक्रीम अभी बची हुई है?

दोपहर के बीतते-बीतते यूँ संवलाये बादलों का अचानक घिर आना कोई नयी बात नहीं है, बल्कि.....

रविवार, 29 अगस्त 2010

एक दृश्य एक एहसास: तादात्म्य

साँस लेता हुआ-सा वातावरण
अनजाने, अनदेखे, निःस्वर
मेरी साँसों में घुल-मिल कर
होता एकाकार ?
अथवा
मैं ही धीरे-धीरे
मिट-मिट कर
इस दृश्य-फलक पर
बनता जाता हूँ संसार ?

रविवार, 22 अगस्त 2010

दिन गये वे बीत

दिन गये वे बीत जब मैं बात कहता था खरी.
अब मेरे शब्दों की नोकें हो गयी हैं भोथरी .

देखने-सुनने का मतलब आजकल
दिक्कतों और मुश्किलों से उलझना .
कटघरे में जब खड़ा होगा कहीं
क्या अकेला कर सकेगा इक चना?

नज़र है धुँधला गयी तो लाभ है
सभी जिम्मेदारियों से हूँ बरी .

सच छिपाने के तरीके सैकड़ों
इस ज़माने की नयी ईजाद हैं .
सभी लज्जाजनक स्थितियों के लिए
शब्द सुविधाजनक मुझको याद हैं.

जाल को अनुशासनात्मक कह रहा
मछलियों को कह रहा हूँ जलपरी.

साफगोई का मज़ा, फिर भी, सुनो,
खास ही कुछ स्वाद होता है सदा.
खुल के बातें बोलने वाला तभी
बड़ी मीठी नींद सोता है सदा.

नया नुस्खा---नींद मीठी के लिए
लाभप्रद होती हैं बातें चरपरी.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सदा से अव्यक्त हैं ये व्यक्ति बेचारे

सदा से अव्यक्त हैं ये व्यक्ति बेचारे
इतिहास भी इनके विषय में मौन है धारे .

सिप किया करते कभी आश्वासनों की चाय
स्नैक्स बन कर मिल रहे हैं चटपटे नारे.

कुछ नहीं दायित्व अपना इन सभी की ओर
क्या करे कोई कि हैं ये भाग्य के मारे.

आदमी बौने, नया नुस्खा-ए-तरक्की,
छू लो ज़रा सा उछल कर तुम गगन के तारे.

क्या हुआ जो आज घर की बत्तियाँ हैं बंद
चुप प्रतीक्षा कर रहे स्विच ऑन हैं सारे .

सोमवार, 16 अगस्त 2010

एक और काव्यानुवाद---वेंडी बार्कर की कविता का

Wendy Barker

The Pool

Small fish break the surface
but always I am waiting
for the deep-rooted lily
to bloom again, planted
so down in my silt.




वेंडी बार्कर
सरोवर

तोड़ती हैं सतह को बस मछलियाँ छोटी
जबकि मुझको है प्रतीक्षा सदा
केवल कुमुदिनी की
हैं जड़ें गहरी
खिलेगी फिर
उगेगी खूब गहरे पंक में से.
पंक जो मेरे तले में है.

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

वेंडी बार्कर की अंग्रेजी कविता का काव्यानुवाद

Wendy Barker

Eve Remembers

It was his bending to the path I noticed.
A deliberate dip, a sweep of his long arm.
Blind, we couldn’t know what lay ahead.
He said he was picking up twigs, branches,
trying to clear the path. He didn’t want
anyone who had to follow us to fall.




काव्यानुवाद
वेंडी बार्कर

याद है हव्वा को

मैंने तो बस उसका झुकना भर
देखा पथ पर
देखा—वह कुछ सोच-समझ कर झुका
और फैलायी लंबी बाँह.
दृष्टिहीन हम नहीं जान पाए
आगे की राह.
उसने कहा --- हटा देता हूँ
टूटी हुई टहनियाँ / पथ
काँटों से घिर जाए ना.
कहीं हमारे पीछे आने वाला
गिर जाए ना !

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

लैंग्स्टन ह्यूज़ की कविता का काव्यानुवाद

The Negro Speaks Of Rivers

I've known rivers:
I've known rivers ancient as the world and older than the
flow of human blood in human veins.

My soul has grown deep like the rivers.

I bathed in the Euphrates when dawns were young.
I built my hut near the Congo and it lulled me to sleep.
I looked upon the Nile and raised the pyramids above it.
I heard the singing of the Mississippi when Abe Lincoln
went down to New Orleans, and I've seen its muddy
bosom turn all golden in the sunset.

I've known rivers:
Ancient, dusky rivers.

My soul has grown deep like the rivers.

नदियों के बारे में नीग्रो का कहना है

नदियों को जाना है मैंने

नदियाँ जो प्राचीन बहुत हैं, उतनी जितनी अपनी दुनिया.
मानव की नस-नस में बहता रक्त नहीं था, तब भी वे थीं.
जाना है मैंने नदियों को

तभी आज अंतस में मेरे गहराई है नदियों जैसी.

मैंने यूफ्रेतिस के जल में स्नान किया था, जब सुबहें थीं नयी-नवेली.
कांगो के नज़दीक बनाई कुटिया मैंने औ'उसने था मुझे सुलाया लोरी गा कर.
मैंने नील नदी को देखा और पिरामिड उसके तट पर खड़े कर दिए.
फिर जब लिंकन न्यू और्लीन्ज़ गया तब मैंने मिसीसिपी का गीत सुना था
औ' देखा था उसका मटमैला वक्षःस्थल संध्या में हो गया सुनहला.

नदियों को जाना है मैंने
बहुत पुरानी मटमैली धूसर नदियों को

तभी आज अंतस में मेरे गहराई है नदियों जैसी.

बुधवार, 16 जून 2010

सौवीं पोस्ट में कुछ चिन्ता कुछ चिन्तन

जटिल-कुटिल संदेह और सन्दर्भ हीन शंकाएँ
ऐसा कुछ हो जिस से ये आकारबद्ध हो जाएँ .
प्रायः असहनीय हो जाता धुंधलेपन का बोध
अस्पष्टता अनिश्चितता का, खालीपन का बोध .
चुभती रहतीं मन में जैसे काँच की तीखी नोकें !
किस उपाय से हम प्रतिकूल समय की धारा रोकें ?
चिंतन का क्या अर्थ? कौन सी दिशा और क्या परिणति ?
कैसे तर्क? कहाँ आस्थाएँ और कहाँ की उन्नति?
प्रश्नों की चींटियाँ रेंगती रहतीं सदा बदन पर
उखड़-उखड़ कर गिरते जाते हैं चिरस्थापित उत्तर.
टुकड़े-टुकड़े अर्थ-हीनता का होता आभास
उससे भी चिपके रहने का नहीं हमें अभ्यास .
भ्रमित-विवश है व्यक्ति और उद्देश्यविहीन समाज
इस घातक, मर्मान्तक पीड़ा का क्या करें इलाज ?

रविवार, 6 जून 2010

बारिश आने ही वाली है

बारिश आने ही वाली है .

तपी हुई थी धरती ऐसे
तवा आग पर रक्खा जैसे
तभी हवा का झोंका आया
चला किधर से? आया कैसे?

वह देखो तो आसमान पर
घिर आयी बदली काली है .

गर्मी का इलाज करने को
मन की बेचैनी हरने को
बादल के रथ पर आयी है
खेतों में पानी भरने को .

पेड़ झूमते हाथ हिलाते
झुकी हुई डाली-डाली है .

बारिश आने ही वाली है !

रविवार, 25 अप्रैल 2010

संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान कृपया प्रकाश डालें

हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में -- और मुझे लगता है -- अन्य भाषाओं में भी प्रायः संज्ञा व सर्वनाम के दो रूपों -- एकवचन और बहुवचन -- का प्रयोग होता है . परन्तु संस्कृत में इन के अतिरिक्त द्विवचन का भी व्याकरण में विधान है . संभवतः ऐसा आरम्भ से ही रहा होगा. स्पष्ट है कि इसका कोई विशेष कारण रहा होगा . कालान्तर में भी इस विधान में कोई परिवर्तन नहीं किया गया, यद्यपि द्विवचन को हटाना व्यावहारिक दृष्टि से सुविधाजनक होता . संस्कृत के वैयाकरणों ने ऐसा नहीं किया, तो उसका क्या कारण था ? संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान् कृपया प्रकाश डालें. आप सब से निवेदन है कि इस विषय में अपने विचार प्रस्तुत करें .

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

बिजली क्या है, जादू है बस

बिजली क्या है, जादू है बस .

घुप्प अँधेरे में जब आँखें
बिलकुल बेबस हो जाती हैं
सारी चीज़ें काली चादर
के अन्दर जब खो जाती हैं

बल्ब जले तो मिट जाता है
आँखों का सारा असमंजस .

पंखा फ्रिज टीवी या मिक्सी
कूलर एसी या कम्प्यूटर
चलते हैं बिजली के बूते
आज दिखाई देते घर-घर .

हरफनमौला बिजली के बिन
नहीं हो सकेंगे टस से मस .

बिजली क्या है, जादू है बस .

रविवार, 28 मार्च 2010

जिबह की शुरुआत

निर्मम हो जाने की हद तक
हँसना तुमसे हो पायेगा ?
हिंस्र और परपीड़क होने की सीमा तक
नाच सकोगे ?
कर पाओगे भावुकता का अभिनय,
जब आदेश मिलेगा ?

बदले सन्दर्भों में
सबसे ज़्यादा क्रूर और हिंसक तो
केवल मुस्कानें होती हैं .

ओ निष्कलुष स्वप्नजीवी !
तुम जान नहीं पाओगे-- कैसे
हँसते-गाते-मुस्काते
या मस्ती में नर्तन करते ही
पंख तुम्हारे धीरे-धीरे नुच जायेंगे .
तुम आभारस्वरूप ज़रा-सा
खिसिया कर रह जाओगे, बस !

जिबह किये जाने की जो
शुरुआत हो चुकी है
तुम उसमें
किस हैसियत से शामिल हो--
यह जान-समझ लो !

बुधवार, 24 मार्च 2010

रामनवमी के अवसर पर

चाहता है वंश-वृद्धि, कोई सुख-समृद्धि, चाँदी-सोना करे कोई धारण जहान में .
नीचे अपमान दुख सहता है इनसान, ऊँचे पद घेर खड़े चारण जहान में .
करे इंतज़ाम सारे, मन को आराम नहीं, सुख बने दुखों का भी कारण जहान में .
चाहो जो निवारण, तरीका असाधारण है रामजी के नाम का उच्चारण जहान में !

रविवार, 21 मार्च 2010

कब्रिस्तान में बाज़ार

वीतरागी हो चला था मन .
कँगूरे सामने की भीत के
जर्जर दिखाई दे रहे थे .
वनस्पतियों, पेड़-पौधों औ' लताओं
से घिरी पगडंडियों पर
हर तरफ पसरा हुआ था
निपट खालीपन .
और ही कुछ लग रहा था
सृष्टि का फैलाव
बेतरतीब बेमानी .
'सच यही है अंततः' ---
दुहरा रहा था वीतरागी मन .
'खोखली हैं ये ख़रीद-फ़रोख्त की बातें
मुलाकातें
जिन्हें हम सच समझते हैं .'
बस यही सब सोचते-गुनते
अचानक
एक पत्थर पर लिखा देखा---
'फ़ुल बॉडी मसाज'
जिसके साथ ही फिर
साफ़ देखी जा रही थी
दस अंकों वाली इक संख्या .
यूँ उकेरी गयी मानो
पा गयी अमरत्व का वरदान !

बुधवार, 17 मार्च 2010

कब्रिस्तान में सूर्योदय

कोई नियम नहीं टूटा
नहीं विच्छिन्न हुआ कोई वैधानिक प्रावधान
एक मनभावन मुस्कान तो थी
छतनार दरख्तों के होठों पर
लेकिन बारिश से वह नम हो चुकी थी
कुछ फीकी और कुछ कम हो चुकी थी .
फैलते उजास में आभास था
थमे होने का.
थोड़ी देर पहले ही
थम गयी थीं बूँदें
हवा की परतों में कैद .
हर कोई चुप था लेकिन मुस्तैद .
नामालूम रहीं सारी तैयारियाँ
कहीं कोई संकेत नहीं था
किसी उत्सव या सज्जा का .
ऐसे में उसने खिड़की से झाँका .
हुआ सब कुछ सहज ही
कोई नियम नहीं टूटा .
बस सुनहरी हुईं पेड़ों की फुनगियाँ
सरसराती हवा के साथ
धीमी गुनगुनाहट में
परिंदों की सुगबुगाहट में
किसी के लिए तो था ही उसका सन्देश
'उठ जाग, मुसाफिर, भोर भई ....'

रविवार, 7 मार्च 2010

नुक्कड़ वाली तुलसी बाई

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बाल-कविता

पैंट कमीज़ें और साड़ियाँ
ले जाती है तुलसी बाई
कपडे सभी इस्तरी करके
लौटाती है तुलसी बाई .

छोटा कद है, रंग साँवला
माथे पर बिंदी है लाल
अपने छोटे बच्चों का भी
रखती है वह खूब ख़याल .

हिम्मत से है किया सामना
जब भी कभी मुसीबत आयी .
बड़ी मेहनती नारी है यह
नुक्कड़ वाली तुलसी बाई .

सोमवार, 1 मार्च 2010

तस्वीरों के रोग बहुत हैं...

तस्वीरों के रोग बहुत हैं .

आँखें बँधुआ बन जाती हैं,
छिन जाती मन की आज़ादी,
तय हो जाती चिंतन-धारा,
उड़ते पाखी का ऊर्ध्वंग
वेग भी सीमित हो जाता है .
सुविधा-सी लगती है शायद
इसीलिये
पक्षधर बनें जो तस्वीरों के,
जग में ऐसे लोग बहुत हैं !
तस्वीरों के रोग बहुत हैं .

शब्द ज़रा मेहनत करने से ही
सधते हैं .
लेकिन हर कल्पना
खुले में
पा सकती विस्तार शब्द से .
शब्द मुक्ति के वाहक बनते,
चिंतन के निर्झर का वेग
बढ़ाने वाले,
वस्तु-जगत के चक्रव्यूह में
हमें सुझाते नए रास्ते.

इन पर तस्वीरों के
कसने लगे शिकंजे.
तस्वीरों की बहुतायत है .
किसी संक्रमण की शुरुआत
हुई जाती है !

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

गृहिणी

आज वैलेंटाइन डे है, सो यह प्रेम कविता गृहिणी के लिए, जिस के बारे में कवि अक्सर कुछ नहीं कहते. वह केवल हास्य-कविताओं में स्थान पाती है .

जादू की तरह मौजूद रहती है वह घर में
जादू से कम नहीं होते उसके कारनामे.
चीज़ों को जिद रहती है
टूटने की, फटने की,
बिखरने और गुम होने की.
और वह ऐसा होने नहीं देती.
चीज़ों की बेतुकी ज़िद के ख़िलाफ़
जम कर टक्कर लेती है .
जादू से कम नहीं उसका इस घर में होना
उसके होने के सबूत बार-बार देता है
इस छोटे-से घर का कोना-कोना !

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

तेरी हसीं निगाह का एहसानमंद हूँ...

पहली बार एक फ़िल्मी गीत की पंक्ति आप मेरे ब्लॉग पर देख कर कुछ हैरान तो होंगे. पर बुरा ही क्या है अगर यूँ मेरी बात आप तक पहुंचे ? बात यह है कि आज मुझे आप सब के प्रति अपनी कृतज्ञता के भाव को व्यक्त करना है. जैसा अक्सर ऐसे अवसरों पर होता है, मुझे भावुकतावश कोई सही शब्द नहीं सूझ रहे हैं. मुझे याद है जब पहली बार एक उड़न तश्तरी मेरे ब्लॉग पर उतरी, या जब डॉ. रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' के सर्व-व्यापी स्वरूप का प्रेरक साधुवाद मिला, या केवल टी वी पर देखे गए अलबेला खत्री ने मेरी पोस्ट पर टिप्पणी की, या घुघूती बासूती से रचनाओं के माध्यम से परिचय हुआ या परिचित-अपरिचित पाठकों की टिप्पणियां मिलने लगीं या जब देश-विदेश से अपनी रचनाओं पर सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं तो हर बार कृतज्ञता का यह भाव अधिकाधिक समृद्ध होता गया.

आखिर आज मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? आज के दिन में ऐसा क्या है ?

आप समझ तो गए होंगे, फिर भी बता देता हूँ . आज मुझे इस ब्लॉग 'बर्फ के खिलाफ' में लिखते हुए पूरा एक वर्ष हो गया है.

यही आशा है कि आपके ब्लोग्स पर नयी नयी पोस्ट्स पढने और अपने ब्लॉग पर नयी नयी पोस्ट्स लिखने का यह सिलसिला जारी रहेगा. चाहता था कि हर टिप्पणीकार और अनुसरण कर्ता का नाम दे कर आभार व्यक्त करूँ, पर विराम देते हुए उस फ़िल्मी गीत की दूसरी पंक्ति ही से काम चला रहा हूँ-- मैं खुशनसीब हूँ कि मैं तुमको पसंद हूँ !

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

शब्दों का खेल

एक फूल के आगे फल है
दोनों मिल कर बने मिठाई .
है 'गुलाब-जामुन' वह काला
गोरे रसगुल्ले का भाई .

जो फँस जाता वह 'शिकार' है,
तैरे जल के बीच 'शिकारा' .
निकले जिस से धुन 'सितार' है,
चमके नभ के बीच 'सितारा' .

क्यों हम 'हार' नहीं पहनाते
उसको, जो चुनाव में 'हारा' ?
इस गड़बड़ घोटाले में है
यह भी एक सवाल हमारा !

रविवार, 24 जनवरी 2010

आज नव गौरव के वैभव का उत्सव है

प्रतिदिन गिन-गिन देश की विदेश की जो
सूचनाओं-ख़बरों की रहता है टोह में
अपनों से दूर धन के नशे में चूर रहे
पड़े नहीं कभी निज देश के भी मोह में .
बार-बार पढ़े अख़बार न प्रभाव पड़े,
अंतर न लगे तुझे 'वाह' और 'ओह' में--
खोह से निकल, तू 'दधीचि' चल शामिल हो
आज ध्वजारोहण के ख़ास समारोह में !

जनवरी मास में है खास बात, सुनिए जी,
यूँ ही नहीं छाया आसपास ये उल्लास है .
देखा था ये सपना कि राज हो तो अपना ही,
आज का विशेष अपना ही इतिहास है .
त्याज्य वैमनस्य, गणराज्य अविभाज्य रहे,
दासता उदास, दीनता को बनवास है
विग्रह का पाठ नहीं, देखिये 'दधीचि' जी की
व्याकरण में तो बस संधि है, समास है !

आज नव गौरव के वैभव का उत्सव है,
कामना यही है, दूर दुख, द्वेष, खेद हो.
मानव-मानव में विच्छेद नहीं, एक साथ
बाइबल, कुरआन, गुरु ग्रन्थ, वेद हो .
रीति, धर्म, वेश-भूषा, भाषा हों अनेक यहाँ,
रंग हों अलग, फिर भी नहीं विभेद हो--
हवा अनुकूल, दिशा ठीक, देखना 'दधीचि'
देश की नौका के तले में न कोई छेद हो !

बुधवार, 20 जनवरी 2010

देखा-परखा खूब ...

देखा-परखा खूब, आजमाया है, कर ली जाँच
शिलाखंड-सा है अटूट अपने रिश्ते का काँच .

आसमान की रंगत ने उजियाला फैलाया
पेड़ों ने तब बिना छुए आँखों को सहलाया
अलसायी फागुनी हवा भी चली ककहरा बांच .
शिलाखंड-सा है अटूट...

मुग्ध हुआ मन नयी आहटों के अभिनन्दन में
नेह अजाने कोंपल जैसा फूट पड़ा मन में .
तभी नसों में जाग उठी थी धीमी-धीमी आंच .
शिलाखंड-सा है अटूट....

उलझे दूरी और निकटता के असमंजस में
कितना कुछ झेला, कह पाए कितना आपस में ?
कहा-सुना सब झूठ कि जो भोगा हमने वह साँच .
शिलाखंड-सा है अटूट....

पहले तो अस्थिर-सा था अपने रिश्ते का रूप
कभी शीत हिमपात मेह था कभी चमकती धूप
अब वसंत है, बीत गये हैं बाकी मौसम पाँच !
शिलाखंड-सा है अटूट.....

सोमवार, 11 जनवरी 2010

प्रेम न हाट बिकाय

" 'प्रेम' शब्द के इस्तेमाल पर तो अब कानूनी पाबंदी लग जानी चाहिए !" बहस के दौरान उत्तेजित हो कर महेंद्र ने अपना निर्णय सुनाया था .

लेकिन सर्वप्रीत इसे अंतिम फैसले के रूप में स्वीकार नहीं कर रहा था . वह बहस जारी रखना चाहता था --" लेकिन 'प्रेम' शब्द के किस मायने में इस्तेमाल किये जाने पर पाबंदी लगाई जाये ? इसका अर्थ तो बड़ा व्यापक है ."

मैंने अपनी आदत के मुताबिक दोनों को संबोधित कर के कहा था--" देखो, डी एच लारेंस ने भी एक जगह ठीक यही पाबंदी लगा देने वाली बात कही है, हालाँकि खुद उसने इस शब्द का जम कर इस्तेमाल किया है ."

यह अतिरिक्त जानकारी थी, पर सर्वप्रीत का सवाल हमारे बीच अभी अनछुआ पड़ा था . जैसे टेबल पर उसके सामने रखा हुआ कॉफ़ी का कप .

कॉफ़ी-हाउस में कल रात यही रोचक बहस हुई थी . महेंद्र का मसीहाई अंदाज़, सर्वप्रीत की सवालों को उघाड़ कर साफ़-साफ़ शब्दों में सबके सामने रखने की आदत और मेरी विद्वत्ता-प्रदर्शन तथा सुलह-समझौता करवाने की प्रवृत्ति --- ये सब मिल कर बहस के लिए अच्छा वातावरण बना देते हैं . यूं बहस में मृत्युंजय, सत्यवीर, अनुपम और सुरेश भी खूब हिस्सा लेते हैं .

मेरे सामने मेज़ पर दो ख़त पड़े हैं. ये दोनों अरविन्द के ख़त हैं. अरविन्द भी हमारी मित्र-मंडली का सदस्य था. डेढ़ बरस पहले उसके पिताजी का तबादला हो गया था . एक ख़त पर तकरीबन आठ महीने पहले की तारीख है. उन दिनों अरविन्द डाक-तार विभाग में क्लर्क था. ऐसे प्रतिभाशाली लड़के को क्लर्की करनी पड़ रही थी, यह बात हम सबको बड़ी खेदजनक लगती थी. पर वह लगातार प्रतियोगिता-परीक्षाओं में बैठ रहा था और इंटरव्यू दे रहा था. उसके भविष्य के प्रति हम लोग ज्यादा चिंतित नहीं थे.

बहरहाल, यह पहला ख़त यूं है---

रवीन्द्र भाई,
आज तुम्हारी यह शिकायत दूर कर ही दूं कि मैं तुम्हें पत्र नहीं लिखता हूँ. पर सिर्फ शिकायत दूर करने के लिए पत्र नहीं लिख रहा हूँ. तुम सोचोगे ज़रूर कोई खास बात है, जो अरविन्द पत्र लिखने बैठा है . ठीक सोचा तुमने !

बात तो खास ही है. समझ में नहीं आता--किस सिरे से शुरू करूँ ? तुम्हें रेखा के विषय में शुष्क तथ्यों पर आधारित जानकारी दे कर बात ख़त्म कर दूं, तो चिट्ठी लिखने का मज़ा ही किरकिरा हो जाएगा. इतना तो बता ही दूं कि रेखा के साथ मेरी सगाई हो गयी है और मैं बहुत-बहुत खुश हूँ. मैं उस से प्रेम करने लगा हूँ. तुम भी उस से मिलोगे, तो मान जाओगे कि मैं सचमुच बहुत भाग्यशाली हूँ.

इतना मौलिक चिंतन करने वाला आदमी कैसे घिसे-पिटे फ़िल्मी संवाद पत्र में लिख रहा है -- यही सोच रहे हो न तुम ? मेरे भाई, यह प्यार बड़े-बड़े लोगों को ख़ुशी से पागल कर देता है. रेखा बड़ी सादगी-पसंद लड़की है और उसके इस सादगीभरे नारीत्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है. मेरे पिताजी को तो तुम जानते ही हो. कितनी पैनी नज़र है उनकी और कैसा अप्रभावित रहने का स्वभाव. उन्होंने भी कई बार रेखा की खुल कर प्रशंसा की है .

रेखा यह ज़रूर चाहती है कि मैं किसी अच्छे पद पर कार्य करूँ, लेकिन मेरे क्लर्क होने के कारण कोई हीन-भावना उसके मन में नहीं है . तुम तो जानते हो, मैं खुद कितना प्रयास कर रहा हूँ किसी अच्छे पद पर पहुँचने के लिए.

तुम इस तरफ कब आ रहे हो ? तुम्हें रेखा से मिलवाऊँगा . पत्र का उत्तर तो एकदम दोगे ही. माफ़ करना, यार, जल्दी में सगाई हुई; तुम्हें निमंत्रण भी नहीं भेज सका. अब शादी पर तुम्हें ज़रूर पहुंचना है. जल्दी ही तुम्हें निमंत्रण मिलेगा.

अच्छा. महेंद्र, सर्वप्रीत, सुरेश, मृत्युंजय, सत्यवीर, और अनुपम को भी यह खबर सुना देना. कहना-- अरविन्द तुम सब को बहुत याद करता है.

तुम्हारा अपना,
अरविन्द

दूसरा पत्र आज सुबह ही आया है. लेकिन वह पत्र आपको दिखाने से पहले मैं यह बता दूँ कि इन आठ महीनों में क्या हुआ है. हमारी बैठकें कॉफ़ी-हाउस में पहले की तरह जमती रही हैं. इस बीच महेंद्र का पी-एच डी के लिए रजिस्ट्रेशन हो गया है. मृत्युंजय मुंबई में एक सेमिनार में भाग लेने गया था. अनुपमकी कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है. और अरविन्द भी दो-एक बार यहाँ आया

पहली बार जब आया, तो उसने बड़ा बोर किया. उसका 'रेखा-पुराण' द्रौपदी के चीर की तरह समाप्त ही नहीं हो रहा था. इतना तो कभी सुरेश की अति बौद्धिक कविताओं ने भी हमें बोर नहीं किया था. मैं मानता हूँ, मुझे अपने मित्र की ख़ुशी में शामिल होना चाहिए. मैं यह भी नहीं कहता कि रेखा के प्रति उसका प्रेम महज़ किशोरावस्था का पागलपन है या किसी अपरिपक्व मस्तिष्क की वायवीय कल्पना-मात्र है. उसका प्रेम गंभीर और सच्चा होगा. इस विषय में मैं अपनी किसी भी तरह की राय को असंगत ही समझता हूँ.

खैर, दूसरी बार वह एक शुभ सूचना लेकर आया. सिविल सर्विसेज़ की प्रतियोगी परीक्षा में वह सफल हो गया था और उसका इंटरव्यू भी अच्छा रहा था. शीघ्र ही वह ऊँचे दर्जे का सरकारी अफसर बनने वाला था. उसने काफी-हाउस में ही अच्छी-खासी पार्टी हम दोस्तों को दी. इस बार उसने रेखा के साथ अपने सुखद भविष्य की योजनाएँ भी बनाईं. वे योजनाएँ यथार्थ से कटी हुई या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं थीं.

इसके बाद मृत्युंजय सेमिनार से लौटते हुए रास्ते में एक दिन अरविन्द के यहाँ ठहरा. उसने आ कर सूचना दी कि इंटरव्यू में भी अरविन्द सफल रहा था. मुझे, दर असल, उसके विवाह के निमंत्रण-पत्र की प्रतीक्षा थी. मुझे आशा थी कि प्रोबेशन पर जाने से पहले वह विवाह कर लेगा.

और आज सुबह यह दूसरा पत्र आया है ---

रवीन्द्र भाई,

तुम सोचते होगे -- कम्बख्त अच्छी-खासी नौकरी पर लगा है; शादी न जाने कब करेगा ? ठीक है . इसी महीने शादी कर रहा हूँ. औपचारिक निमंत्रण-पत्र अलग से भेजूंगा.

तुम्हें कल्पना के बारे में तो नहीं बताया न ? बताता भी कैसे ? अभी एक सप्ताह पहले तो उस से परिचय हुआ है. उसके पापा पिताजी के एक मित्र के मित्र हैं. बस, पिताजी से उन्हों ने मेरे बारे में बात की. पिताजी को कल्पना पसंद है. उसके साथ विवाह से दो दिन पहले सगाई की रस्म भी हो जायेगी. मुझे भी कल्पना बड़ी समझदार और सुलझी हुई लड़की लगी. दिल्ली के एक कॉलेज में समाज-शास्त्र की प्राध्यापिका है. उसके पापा यहाँ के प्रतिष्ठित वकीलों में से हैं.

रेखा के बारे में जानना चाहते हो तुम ? बस, मामला कुछ जमा नहीं. पिताजी उसके पापा के साथ कुछ ज़रूरी बातें करने गए थे. यही विवाह के सिलसिले में. उन्होंने लौट कर बताया कि ज्यादा उत्साहवर्धक 'रिस्पौंस' नहीं मिला. इसके बाद आगे बढने का तो सवाल ही नहीं था.

कल्पना मुझे खूब पसंद है. बल्कि, मैं उस से प्यार करने लगा हूँ. मुझे ऐसी ही जीवन-संगिनी की तलाश थी. अच्छा, मुझे अभी सूट की सिलाई के लिए टेलर के पास जाना है. घर पर सबको यथोचित अभिवादन. मित्र-मण्डली को तो मैं प्रायः याद करता रहता हूँ.

तुम्हारा अपना,
अरविन्द

शाम हो रही है. मैं यह दूसरा पत्र चुपचाप जेब में डाल कर कॉफ़ी-हाउस की तरफ चल पड़ता हूँ. आज पहली बार मैं एक मित्र के व्यक्तिगत पत्र को टेबल पर अन्य मित्रों के सामने रखूँगा और चाहूँगा कि इस पर चर्चा हो.

कॉफ़ी-हाउस में सब पहुँच चुके हैं. मैं जेब से पत्र निकाल कर टेबल पर रखता हूँ. पत्र का पोस्ट-मार्टम होता है. सुरेश कहता है -- " इतना स्पष्ट है कि अरविन्द अगर सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा में अच्छे अंक ले कर सरकारी अफसर न लगा होता, तो कल्पना के पापा की ओर से रिश्ता कभी नहीं आता और रेखा के साथ उसकी मँगनी बिलकुल नहीं टूटती."

सत्यवीर को भी रेखा के साथ सहानुभूति है. वह बताना चाहता है कि ऐसी घटनाएँ प्रायः होती हैं, लेकिन हमारा एक मित्र पैसे के लालच में ऐसे सम्बन्ध को तोड़ दे --- यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. वह इसे साफ़-साफ़ दहेज के लालच का मामला मानता है.

अनुपम का कहना है -- " यह सरासर अन्याय है. जब प्यार करने के बाद अरविन्द ने शादी करना ज़रूरी नहीं समझा, तो शादी करते समय कल्पना से प्यार करना ज़रूरी क्यों समझता है वह ?"

मुझे सर्वप्रीत का वह सवाल अचानक याद आ गया है --" 'प्रेम' शब्द के किस मायने में इस्तेमाल किये जाने पर पाबंदी लगे जाये ?" मैं सबको वह बात याद दिलाता हूँ और महेंद्र अपने उसी निर्णयात्मक लहजे में बोल उठता है -- " ठीक है. यह सर्वप्रीत के सवाल का आंशिक जवाब है. कम-से-कम इस मायने में 'प्रेम' शब्द के इस्तेमाल पर पाबंदी लग ही जानी चाहिए, जिस मायने में अरविन्द ने इसे इस पत्र में इस्तेमाल किया है. यह बिलकुल झूठ है. वह प्यार नहीं करता है. वह प्यार करने के लिए खुद को तैयार कर रहा है, मना रहा है."

यही आत्म-प्रवंचना, मेरी नज़र में, असली त्रासदी है. रेखा की सगाई टूट जाना दुःख की बात है. अरविन्द जैसे क्रान्तिधर्मा नवयुवक का समय आने पर पिताजी के दड़बे में दुबक जाना और इस तरह रेखा को धोखा देना उससे भी ज्यादा दुःख की बात है. पर यह अपने आप को धोखे में डालने की कोशिश बड़ी पीड़ादायक स्थिति है. और इस से बुरी सिर्फ एक बात हो सकती है.
वह यह कि कल महेंद्र, सर्वप्रीत, मृत्युंजय, सत्यवीर, अनुपम, सुरेश और खुद रवीन्द्र में से कोई अरविन्द के इस दुसरे पत्र जैसा पत्र किसी को लिखे !

शनिवार, 9 जनवरी 2010

बादल से निकल के आई हुई एक बूँद

बादल से निकल के आयी हुई एक बूँद
हुई है सफल जल के ही कल-कल में .
बत्तियाँ अनेक, लड़ी एक है प्रकाशमान
एक ही विद्युत् का प्रवाह है सकल में .
सदियों पुराना हो अँधेरा घेरा डाले हुए
भाग जाता है दिये की रोशनी से पल में .
दिये से जलाएँ दिया, देखते ही देखते यूँ
रमे हों 'दधीचि' उत्सवों की हलचल में !

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

यह ग़ज़ल गाने के लिए नहीं

यह ग़ज़ल गाने के लिए नहीं रची गयी; तत्सम शब्दों और संयुक्ताक्षरों के कारण संभवतः गेय नहीं बन पायी, फिर भी इस के छंद-विधान आदि पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत है ।

भीतर भी घिरता आता है बाहर जो फैला धुंधलापन ।
धुंधलेपन-सा मेरा जीवन, मेरे जीवन-सा धुंधलापन ।

सूर्यातप से दृश्य-जगत पर से परदे जब उठ जाते हैं,
तब खिसिया कर कहाँ फेर मुँह खो जाता गहरा धुंधलापन ?

प्रायः अस्थायी होता है संध्या का झुटपुटा चतुर्दिक
सदा अनिर्णय-सा मेरे मन पर छाया रहता धुंधलापन ।

अस्पष्टता जहाँ जा कर छँटती, पराजिता हो जाती है,
वहाँ पहुँचने से पहले हठपूर्वक ठहर गया धुंधलापन ।

नहीं बनाता केवल मेरी आँखों को ही यह असहाय,
स्पर्श, गंध, रस, स्वर को भी अग्राह्य बना देता धुंधलापन ।

अन्वेषण की प्रबल एषणा और हमारी जिज्ञासाएँ ---
एक ओर ये और दूसरी ओर यह भला क्या ? धुंधलापन ।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

नए वर्ष की वेला

क्यों अंतर्मन में इक उजास-सा लगता है
क्यों आज भली लगती है हर इक बात हमें ?
है और दिनों जैसा ही यह सुन्दर विहान
फिर क्यों विशेष लगता है यही प्रभात हमें ?

जिस बीते कल की उथल-पुथल से गुज़रे हैं
उसके सब सबक हमें रस्ता दिखलायेंगे ।
यह बात खास है नये वर्ष की वेला में
हम ज्यादा हिम्मत से अब कदम बढ़ाएँगे ।

हम नित्य नवीन दिशाओं का संधान करें
निर्भय हो कर अपने पथ पर बढ़ते जाएँ ।
हर सुन्दर सपना हो अंकुरित बने बिरवा
पल्लवित और पुष्पित हों मन की आशाएँ ।

सौभाग्य हमारा मार्ग प्रशस्त बनाएगा
जब नेक इरादों से मेहनत में रत होंगे ।
खुद अपना ही विवेक, साहस, विश्वास यहाँ
हर कठिनाई में हम सब की ताकत होंगे ।

आसान नहीं हैं चुनौतियाँ इस जीवन की
पर हमने सदा धैर्य से उन्हें हराया है ।
बस, यही स्मरण करवाने की खातिर शायद
इस नये वर्ष का सूरज यूं मुस्काया है !