शनिवार, 9 नवंबर 2013

असली बात

असली बात तो इनसानी तकलीफों की है .

तकलीफों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती सी है .
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियां
मुझको कर जाती उदास हैं .
यूँ ही अकेला कर जाती है
हम सब को पीड़ाएं, लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है?
दुःख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही आखिर
क्यों हमको लाज़िम लगता है?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुःख-दर्दों में फंस कर
जो सांझे हैं, मिलते-जुलते हैं .

मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किये जाने की
कोई राह निकल ही आये।

असली बात नहीं
दुःख-दर्दों, तकलीफों की,
असली बात हमारे
दुःख में मिल-जुल कर रहने की भी है!