मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

यादों की खिड़की में

सकुचाई पंखुड़ी को
रस में भिगो कर ज्यों
भावुक चितेरे ने चित्र दिए आँक

लौट रहीं लहरें किनारे के पास
स्वप्नलीन विरहिन है बैठी उदास
आँखों में प्यास और भीतर विश्वास
अनदेखे हाथों ने
रैना के आँचल पर
झिलमिल सितारे फिर आज दिए टाँक

फैल रहा आँचल या सुधियों का जाल
खुले हुए बाल और हाथों पे गाल
मन में उग आये हैं सैकड़ों सवाल
यादों की खिड़की में
फिर से मुस्काई है
दूध धुले चंदा की गोरी-सी फाँक

हो कर तल्लीन रही कितना कुछ सोच
लगते हैं व्यर्थ रंग, रूप और लोच
गदराया गात करे खुद से संकोच
हवा मगर आती है
तन को सिहराती-सी
करती है उत्सुकता से ताक-झाँक.

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

मिलन का यही स्थान

मिलन का यही स्थान तय तो हुआ था
सुनिश्चित दिवस और समय तो हुआ था.

नहीं हो सका उनसे परिणय तो क्या ग़म ?
ये क्या कम है उनसे प्रणय तो हुआ था.

रहा पूर्णतः मौन बाहर से लेकिन
वो निर्दय हृदय में सदय तो हुआ था.

ये क्यों बेसुरे स्वर उभरने लगे हैं ?
लयों का परस्पर विलय तो हुआ था.

बनायेंगे फिर नीड़ तिनके जुटा कर
यहाँ चक्रवाती प्रलय तो हुआ था.