गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

उनके कपड़ों में जेब क्यों नहीं ?

आज सुबह श्रीमती जी ने जब काम वाली बाई को उसका मासिक वेतन देना चाहा, तब वह अभी काम कर ही रही थी. उसने कहा, "आंटी, आप ये सामने टेबल पर रख दीजिये. मैं जाने से पहले ले लूंगी." उसकी इस बात से अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया कि उसके कपड़ों में कोई जेब नहीं ,जिसमें ये पैसे डाल सके. पुरुषों के वस्त्रों में जेब अक्सर होती है, जब कि महिलाओं के वस्त्रों को जेब-रहित बनाया जाता है. जेब वास्तव में चीज़ों पर हमारे अधिकार का प्रतीक है. ऐसा लगता है कि शुरू से पुरुषों को ही चीज़ों पर अधिकार के लिए पात्र समझा गया होगा और महिलाओं को इस के लिए सुपात्र न मान कर उनके वस्त्रों को जेब-रहित बनाया गया. पुरुषों को महिलाओं पर तरजीह देने का यह दृष्टिकोण काफी गहरे तक हमारी संस्कृतियों में समाया हुआ है. मैं यह जानने को उत्सुक हूँ कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं.

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी रिसर्च सही है!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी रिसर्च सही है!

Alpana Verma ने कहा…

मुझे जहाँ तक याद है गाँवों में स्त्रियाँ अपनी कमीजो आदि में जेब बनाती हैं..और आँचल के छोरमें छोटा मोटा सामान या पैसे आदि बांधने का चलन भी रहा है...शहरों में तो हाथ में पर्स रखने का रिवाज़ है ही.
........वैसे जब तक स्त्रियाँ घरों में रहती थी तब तक तो उन्हें जेब रखने की आवश्यकता ही नहीं रही होगी..वर्ना कपड़ा सिलने वाली वे खुद ही हुआ करती थीं तो यह सुविधा स्वयं के लिए अगर ज़रुरी होती तो खुद के लिए ही पहले बनाती .

SAURABH ARYA ने कहा…

आपकी बात वाजिब है और साथ ही अपना जी द्वारा दिए गए तर्क से भी सहमत हूं...' जब तक स्त्रियाँ घरों में रहती थी तब तक तो उन्हें जेब रखने की आवश्यकता ही नहीं रही होगी..वर्ना कपड़ा सिलने वाली वे खुद ही हुआ करती थीं' शायद यही वजह है कि आजकल आधुनिक युवतियों के वस्‍त्रों में एक नहीं बल्कि कई कई जेब मौजूद रहती हैं...हां आफिशियली दुनियां जहान को समेट लेने वाला वह तिलिस्‍मी पर्स तो सबके पास है ही.