रविवार, 9 अक्टूबर 2011

यह सब कैसे होता है ?

तुम जानते हो---- यह सब कैसे होता है?
कैसे भीड़ पहली बार
ऐसी घटना से उत्तेजित होती है
विरोध में नारे लगते हैं
जुलूस निकलते हैं.
घटना फिर होती है ---
इस बार शिष्ट-मंडल जुटते हैं
बहसें-चर्चाएं होती हैं.
घटना एक बार फिर होती है
किसी और स्थान पर
किसी और समय पर
थोड़े-से परिवर्तन के साथ.
अब की बार, कॉफी की चुस्कियों के साथ
बुद्धिजीवी उसके बारे में बात करते हैं.
अखबार में सुर्ख़ियों से उतर कर
वह छोटे-छोटे कालमों में
सिकुड जाती है
और इस तरह प्रतिक्रियाएं
ठंडी पड़ने लगती हैं
उत्तेजना मरने लगती है
उस पर बासीपन की परतें जमती जाती हैं.
हम यह कहना छोड़ देते हैं
कि अमुक घटना सनसनीखेज
या खतरनाक है .
या कि अमुक स्थिति
बड़ी शर्मनाक है.
आहिस्ता-आहिस्ता हमें
‘अन्याय’ को ‘न्याय’ कहना
ज़्यादा मुनासिब लगने लगता है.
हमारी तर्क करने की पद्धति बदल जाती है.
हम पूछते हैं—‘ठीक है, ऐसा हुआ.
पर क्या यह भ्रष्टाचार है?’
हत्या को हम आत्महत्या मान लेते हैं
या उससे भी आगे बढ़ कर
महज़ दुर्घटना.
आदर्शों पर बहस करने वाली
पीढ़ी तो बुढा गयी.
अब तो उन पर हँसने वाली पीढ़ी
आ चुकी है.
पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम स्वयं
अपना अवमूल्यन करते जा रहे हैं.
नामालूम ढंग से
चुपचाप, आहिस्ता-आहिस्ता.
इस खौफनाक प्रक्रिया को देख रहे हो तुम?
आक्रोश विस्मय अफ़सोस
रोमांच करुणा सरोकार
ये सब कैसे बर्फ़ की मानिंद
जमते चले जाते हैं
माहौल के शून्य डिग्री तापमान वाले
इस आत्मघाती ठंडेपन में?
तुम जानते हो--- यह सब कैसे होता है?

रविवार, 25 सितंबर 2011

चिटकनी

ऐसा अक्सर होता है
तुम्हें कमरे में बैठे-बैठे घुटन-सी महसूस होती है
और तुम उठ कर
खिड़की की चिटकनी खोल देते हो
तुम्हारा समूचा अस्तित्व
बाहर को छिटका-सा पड़ता है
तुम बाहर की हवाओं के प्रति
भिक्षा-पात्र बन जाते हो.

कभी-कभी कोई झोंका भी आता है
बाहरी हवाओं के नंगेपन की छुअन-सा
रोमांचक
उसे तुम पहचानते हो
दीवानावार गलियों में आवाजें/ दस्तकें देते हुए
ताजगी बांटते हुए उसे
कई बार तुमने देखा है.

तुम्हारा तन-मन हाथों की तरह फैलता है.
झोंका निःस्पृह संपन्न लापरवाह-सा
ताजगी धर कर हथेली पर तुम्हारी
चला जाता है.

पर तभी तुम्हारी नज़र
पड़ती है कमरे के फर्श पर सोफे पर टेबल पर
धूल के बारीक-से कण
झोंके के साथ आ कर बिछ गये हैं.
चिटकनी की ओर फिर से हाथ बढ़ता है अचानक
मौसम के साथ तुम्हारे थोड़े-से संपर्क को
वह जोड़ने का तोड़ने का एक माध्यम----चिटकनी
तुम्हारे कवच का वह एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा
हवाओं के खुलेपन
और मौसम के नंगेपन के प्रति
तुम्हारी संस्कारगत असहमति का
वह मौन-मूक प्रतीक चिटकनी
अब बंद होती है.

धूल के कण फर्श पर बिछ जायं
तो वह किरकिरी बर्दाश्त कर पाते नहीं हो
घुटन को अपनी नियति ही मान कर तुम
खिड़कियों को बंद रखते हो
धूल चुभती है तुम्हें
घुटन, पर, चुभती नहीं
महसूस होती है फक़त !

सोमवार, 6 जून 2011

रक्तबीज हिंसा के सैलाब में

इस रक्तबीज हिंसा के सैलाब में
डूबते-उतराते
तेज़ी से विस्मृत होते जाते
शब्दों के बीच
मानव-सभ्यता के सारे अवशेष
पूरी तरह मिट जाएँ ---
इस से पहले
शब्दों के बीज अगर
रखने हैं सुरक्षित तो
एक ही तरीका है ---
कविताएँ
कविताएँ
कविताएँ !

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ऐसी क्या जल्दी है लेबल चिपकाने की ?

अपने संपर्क में आने वाले लोगों के बारे में कोई-न-कोई राय बनाने के लिए हम अक्सर शोर्ट कट ढूँढ लेते हैं. किसी व्यक्ति की पारिवारिक या आर्थिक पृष्ठभूमि, भाषा, धर्म, जाति के आधार पर ही हम जल्दबाजी में अंतिम निर्णय लेने को तैयार रहते हैं. इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में हम हेयर-स्टाइल, कपड़ों, जूतों आदि को देख कर ही ऐसा करने लगे हैं. इस तरह इन्सान को ठीक से देखे-परखे बिना ही उस पर लेबल लगा देने की प्रवृत्ति अब बढती जा रही है. इसके लिए हम जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा आदि से जुड़े अपने पूर्वाग्रहों को आधार बनाते हैं या बाहरी दिखावे और चमक-दमक को. ज़ाहिर है कि हमारे नतीजे अक्सर गलत होते हैं. फिर भी हम लेबल चिपकाने की इस आदत को छोड़ते नहीं.

यह महज़ बौद्धिक आलस्य का सवाल नहीं है. इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप हमारे समाज में विखंडन और विभाजन को बढावा मिलता है. सहनशीलता कम होती जाती है. आपसी संदेह और गलतफहमियां बढ़ने लगती हैं. आदमी-आदमी के बीच अदृश्य दीवारें खड़ी हो जाती हैं.

जब हम किसी से मिलें, तो उसके बारे में खुला दृष्टिकोण रखें. अगर ज़्यादा निकटता पसंद न हो, तो कम-से-कम अनावश्यक लेबल लगाने से परहेज़ करें. केवल इतना कर लें, तो यही महत्त्वपूर्ण समाजसेवा होगी. हमारे समाज की वर्तमान स्थिति में इसकी आज बड़ी ज़रूरत है.