रविवार, 25 सितंबर 2011

चिटकनी

ऐसा अक्सर होता है
तुम्हें कमरे में बैठे-बैठे घुटन-सी महसूस होती है
और तुम उठ कर
खिड़की की चिटकनी खोल देते हो
तुम्हारा समूचा अस्तित्व
बाहर को छिटका-सा पड़ता है
तुम बाहर की हवाओं के प्रति
भिक्षा-पात्र बन जाते हो.

कभी-कभी कोई झोंका भी आता है
बाहरी हवाओं के नंगेपन की छुअन-सा
रोमांचक
उसे तुम पहचानते हो
दीवानावार गलियों में आवाजें/ दस्तकें देते हुए
ताजगी बांटते हुए उसे
कई बार तुमने देखा है.

तुम्हारा तन-मन हाथों की तरह फैलता है.
झोंका निःस्पृह संपन्न लापरवाह-सा
ताजगी धर कर हथेली पर तुम्हारी
चला जाता है.

पर तभी तुम्हारी नज़र
पड़ती है कमरे के फर्श पर सोफे पर टेबल पर
धूल के बारीक-से कण
झोंके के साथ आ कर बिछ गये हैं.
चिटकनी की ओर फिर से हाथ बढ़ता है अचानक
मौसम के साथ तुम्हारे थोड़े-से संपर्क को
वह जोड़ने का तोड़ने का एक माध्यम----चिटकनी
तुम्हारे कवच का वह एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा
हवाओं के खुलेपन
और मौसम के नंगेपन के प्रति
तुम्हारी संस्कारगत असहमति का
वह मौन-मूक प्रतीक चिटकनी
अब बंद होती है.

धूल के कण फर्श पर बिछ जायं
तो वह किरकिरी बर्दाश्त कर पाते नहीं हो
घुटन को अपनी नियति ही मान कर तुम
खिड़कियों को बंद रखते हो
धूल चुभती है तुम्हें
घुटन, पर, चुभती नहीं
महसूस होती है फक़त !

1 टिप्पणी:

sube singh sujan ने कहा…

ऐा अक्सर होता है
और ऐसा होना भी चाहिये