(एक झकाझक साफ़-सुथरा तौलिया शोरूम से निकला और बाथ-रूम में नहीं पहुंचा. बल्कि वह यक-ब-यक ऐसी हालत में देखा गया कि पानी-पानी हो गया. ऐसा लगा मानो खुद को ढकने के लिए कोई तौलिया ढूँढ रहा हो. दर-असल हुआ यूँ कि टीवी के बीसियों कैमरों की चुंधियाती रोशनियाँ उस पर पड़ राही थीं और उसे किसी घोटालेबाज की पहचान छिपाने के लिए अदालत में ले जाया जा रहा था. ऐसे में बेचारे तौलिए ने क्या बयान दिया? पढ़िए इस छोटी-सी कविता में. --- दिनेश दधीचि)
तौलिया बोला—“सभी के काम आता हूँ.
ढाँपता हूँ, पोंछता हूँ, मैं सुखाता हूँ.
सोचने का काम तो इन्सान करता है.
सोचना उसका मुझे हैरान करता है.
इतनी हलचल हडबडाहट किस लिए आखिर?
कैमरों की चौंधियाहट किसलिए आखिर?
मैं भी हूँ पतलून कोई, कोट, शर्ट, कमीज़?
देखिये, कुछ सोचिये, मैं तौलिया नाचीज़.
यूँ अदालत में न ले कर जाइए मुझको.
कम-से-कम कुछ काम तो बतलाइये मुझको.
कौन-सा मुझको करिश्मा कर दिखाना है?
फैसला कीजे, मुझे किस काम आना है?
ढाँप कर चेहरे कभी थकता नहीं हूँ मैं.
कारनामे पोंछ पर सकता नहीं हूँ मैं !”
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