हम दोनों गंभीरता से बहस कर रहे थे. क्या ऐसा संभव
है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कोई भी बात एक-दूसरे से छिपी हुई न हो? दो
मित्रों के बीच, पति-पत्नी के बीच या क और ख के बीच. क्या कोई रिश्ता इतना गहरा और
अटूट हो सकता है कि हर अनुभव आपस में बाँट लिया जाए? यानी जान-बूझ कर कोई बात
छिपाई न जाए?
विकास का विचार था कि ऐसा संभव है. संभव ही नहीं,
ऐसा होता है. मुझे इस विषय में संदेह था.
“जब क और ख दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते, तो दोनों के बीच आपसी
विश्वास का ऐसा सम्पूर्ण रिश्ता कैसे हो सकता है?”
“चलो, आपसी विश्वास का न सही, क की ओर से ख के प्रति या ख की ओर से क
के प्रति – किसी एक तरफ से तो ऐसा
रिश्ता हो ही सकता है,” विकास समझौते के मूड में
बोला.
मैं शायद उस से सहमत हो जाता, लेकिन अजीब बात यह
थी कि उदाहरण के तौर पर उसने जिस रिश्ते का ज़िक्र किया, वह था खुद उसकी ओर से मेरे
प्रति कोई छिपाव या दुराव न रखने का रिश्ता. वह ज़ोर दे कर कह रहा था कि उसने
जान-बूझ कर कोई भी बात मुझ से कभी नहीं छिपाई थी. हम दोनों अच्छे दोस्त हैं. पिछले
आठ बरसों से हम साथ-साथ रहे हैं. विकास के परिवार, उसके मित्रों, उसकी व्यक्तिगत
बातों की मुझे अच्छी जानकारी है. उसके एकांतप्रिय स्वभाव के कारण यूँ भी परिचितों
का दायरा सीमित ही है.
विकास सुन्दर, स्मार्ट और तंदुरुस्त युवक है. उसके
व्यक्तित्व के बहुत से पक्षों से मेरा गहरा परिचय है. उसका शब्दों को ठहरा-ठहरा कर
धीरे-धीरे वाक्य बना कर बोलने का अंदाज़ किसी हद तक बनावटी लगता है. बात करते हुए
हाथों का ख़ास ढंग से ऊपर-नीचे होना नए परिचितों को अखरता भी है. मेरे बहुत निकट
होने की बात कहने वाले इस व्यक्ति की बातचीत मुझे हमेशा से औपचारिक और सजग लगती
रही है. किसी सुखद अनुभव या गहरी पीड़ा को जब वह रुक-रुक कर घिसे-पिटे औपचारिक
शब्दों में प्रकट करता है, तो सुनने वाले को उनके बनावटी होने के एहसास से कोफ़्त होने
लगती है. प्रायः सुनने वाला व्यक्ति इतना अनईज़ी महसूस करता है कि उसे बीच में रोक
कर उसका वाक्य स्वयं पूरा कर देना चाहता है. मैं ऐसा करता भी हूँ.
इसके बावजूद हमारी दोस्ती इतने लंबे अरसे से अबाध
चल रही है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि एक तो हमारे बीच टकराव वाली
कोई स्थिति कभी आयी ही नहीं, दूसरे एक अन्तरंग साथी की ज़रूरत के कारण हम दोनों
अपने नितांत व्यक्तिगत अनुभवों को आपस में बांटते रहे.
तो मैं बता रहा था कि कैसे उसका बात करने का अंदाज़
मुझे या उसके अन्य परिचितों को अखरता है. मुझे याद है, लगभग चार महीने पहले एक दिन
जब हम पिक्चर देख कर हॉल से बाहर निकले, तो दोनों हाथ थोड़ा ऊपर उठा कर उसने कहा, “पिक्चर का मज़ा आ गया, यार! हीरो का अभिनय देख कर
लगता ही नहीं कि वह अभिनय कर रहा है. कितना स्वभाविक! और पिक्चर की स्टोरी भी खूब
ज़ोरदार रही और निर्देशन तो.....”
वह ये वाक्य इतना रुक-रुक कर और शब्दों को लंबा कर
के इस तरह से बोल रहा था कि अपनी आदत के मुताबिक मैंने वाक्य पूरा करते हुए कहा, “निर्देशन तो खैर लाजवाब था.” वह थोड़ा झेंप कर मुस्कराया. फिर बोला, “बस, तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी लगती है. तुम जान
जाते हो कि मैं क्या कहने वाला हूँ. तुम मुझे समझते हो. तुम हमेशा....”
“मेरे मुँह की बात छीन लेते हो, यही न?” मैंने हँस कर कहा. हॉल से निकल कर सड़क पर आये, तो विकास ने कहा, “यार, भूख लग रही है ज़ोरों की. चलो, आज किसी होटल
में चल कर खाना खाते हैं.”
भूख मुझे भी लगी थी. खाना खाते वक़्त भी विकास पिक्चर के बारे में बात
करता रहा. होटल से चले, तो वह खाने की तारीफ़ में वैसे ही वाक्य बोल रहा था. “क्या ज़ायकेदार खाना बनाते हैं कमबख्त! आज तो आनंद
आ गया. मन तृप्त हो गया पूरी तरह.”
खाना खाने के बाद वह मुझे अपने कमरे तक ले गया.
ज़िद करने लगा कि मैं थोड़ी देर बैठूँ. बातें शुरू हुईं, तो नमिता की चर्चा चल पड़ी.
नमिता निश्चित रूप से विकास की ओर आकर्षित थी. बल्कि, उससे प्रेम भी करती थी. वह
एम्.फिल. की छात्रा थी. यूनिवर्सिटी में ही उन दोनों का परिचय हुआ था. उसके
प्रेम-पत्र मुझे शुरू से ही विकास पढ़वाता रहा था. मेरे मना करने के बावजूद. इससे
उसको ज़रूर संतोष मिलता था. उसके अहं की तुष्टि होती थी.
मुझे इस बात पर कोई हैरानी नहीं थी कि नमिता विकास
को खूब चाहने लगी थी. उसके बारे में बहुत भावुक हो गयी थी. आखिर विकास गठीले बदन
का आकर्षक युवक था. दोनों की जान-पहचान दोस्ती में और दोस्ती प्रेम में बदल गयी,
तो यह बिलकुल स्वाभाविक था. मेरे मन में कहीं यह ख़याल भी था कि इस रिश्ते से विकास
का व्यक्तित्व कुछ निखरेगा और वह ज़्यादा गंभीर, संतुलित और समझदार हो जाएगा.
नमिता के पत्र आम प्रेम-पत्रों जैसे ही थे. प्रेम
की अकुलाहट, प्रतीक्षा, पीड़ा, स्वप्नों, कल्पनाओं और शे’रो-शायरी की तमाम बातें. बहरहाल, मैं रुचि ले कर
उन्हें पढ़ता था और विकास के कहने पर उनका विश्लेषण और उनके आधार पर नमिता के
स्वभाव आदि का थोड़ा-बहुत मूल्यांकन कर देता था.
पिक्चर वाली उस शाम के लगभग एक महीने बाद विकास जब
मेरे कमरे पर आया, तो बड़ा खुश था. उत्साह उसके चेहरे से छलका पड़ रहा था. इस बीच हम
हमेशा की तरह मिलते रहे थे. पर उस दिन वह बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहा था. कहने लगा, “कल नमिता के साथ खूब बातें हुईं. मेरे कमरे पर ही.
उसका डिज़र्टेशन लगभग पूरा हो गया है. बहुत प्यारी लड़की है. उसके परिवार के लोग तो
पुराने विचारों के हैं, पर वह बड़ी साहसी और समझदार है.”
“वह तो ठीक है, लेकिन तुम कल की बात बता रहे थे,” मैंने टोक कर कहा.
“यूँ बात तो कुछ नहीं है. पर दोस्त, प्यार एक मधुर अनुभव है. पता
नहीं, तुम्हें कभी हुआ या नहीं. उत्साह के कारण मैं रात भर सो नहीं सका.”
“आखिर कुछ बताओ भी. इन्सोम्निया तो एक बीमारी है,” मैंने जान-बूझ कर उसे छेड़ा.
“बस यार, पूछो मत. मज़ा आ गया कल. लाजवाब लड़की है नमिता. तीन-चार घंटे
मेरे साथ रही. आनंद आ गया.”
उसका चेहरा, उसकी भंगिमा, उसके शब्द, उसका अंदाज़
सब कुछ उस दिन जैसा ही था, जिस दिन हमने पिक्चर देख कर होटल में खाना खाया था.
इसके बाद वाले दो-तीन महीनों में न जाने क्यों,
धीरे-धीरे विकास का दृष्टिकोण बदलने लगा. नमिता के पत्र उसके पास आते थे. पर वह
छोटी-छोटी बातों को ले कर खीझ उठता था. उसकी भावुकता से चिढ़ने लगा था वह.
छोटी-छोटी घटनाएं सुना कर वह मुझसे पूछता था, “तुम्हीं बताओ, दोस्त, यह उसकी ज़्यादती नहीं है कि डॉ. मेहता के सामने
वह मेरे साथ इस तरह बात करे?”
या “तुम फैसला करो. यह कहाँ की अक्लमंदी है कि तीन-तीन लड़कों के साथ कॉफी
हाउस में बैठ कर घंटों गपशप करती रहे? चाहे वे इसके सहपाठी ही हों.”
या फिर “समय तय कर के मिलने न आना मुझे बिलकुल पसंद नहीं. ऐसी लापरवाह लड़की
के साथ मैं सम्बन्ध नहीं रखना चाहता.”
सच तो यह है कि इन सारी शिकायतों के बावजूद मैं
नमिता को ज़्यादा दोषी नहीं मान पा रहा था. इसलिए कभी-कभी नमिता की ओर से तर्क दे
कर मैं उसे समझाने की कोशिश करता था.
पिछले इतवार को विकास मेरे पास आया और बोला, “देखा, नरेश! मैं न कहता था कि यह लड़की ठीक नहीं
है.”
मैंने उसे उत्तेजित देख कर शांत होने को कहा, “कौन लड़की? क्या हुआ? बैठ कर आराम से बताओ.”
“देखो, वह मेरे कमरे से चोरी कर के गयी है.”
“चोरी?” मैं गंभीर हो गया, “क्या-क्या चुराया उसने?”
“बाकी तो सारा कुछ चेक करने से पता चलेगा. अपने सारे प्रेम-पत्र तो
उठा कर ले ही गयी है.”
मुझे विकास की बातें बड़ी बेतुकी लगीं. नमिता
एम्.फिल. कर के अपने शहर वापस चली गयी थी और जाने से पहले एहतियात के तौर पर अपने
पत्र साथ ले गयी थी. पिछले दो-तीन महीनों में विकास के बदले हुए व्यवहार का यह
स्वाभाविक परिणाम था.
कल रात मैंने विकास के कमरे पर ही खाना खाया. गो
कि आज मैं उसके साथ अपने दोस्ती के रिश्ते की व्यर्थता समझ रहा हूँ, इस समझ को मैं
लंबे अरसे से टालता आ रहा था. दरअसल, नमिता का एक पत्र आया था, जिसे पढवाने के
लिए विशेष रूप से उसने मुझे कमरे पर बुलाया था. पत्र में इतने आत्मीय रिश्ते के
टूटने का दर्द ज़ाहिर किया गया था. कुछ शे’र थे जुदाई और ग़म के. मैं पत्र को पढ़ रहा था और विकास मेरे चेहरे
को. पांच-छह पन्ने थे. आखरी पन्ना नीचे के कोने से थोड़ा-सा फटा हुआ था. इतना कि उस
पर एक-दो वाक्य लिखे गये होंगे. मुझे आश्चर्य हुआ, संदेह भी. साफ़ पता लग रहा था कि
विकास ने स्वयं यह हिस्सा फाड़ डाला था. पर वह तो मुझ से कुछ छिपाता नहीं था. आखिर
उसने यह कोना क्यों फाड़ दिया?
खैर. पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया बताते हुए मैंने
खाना शुरू किया. शुरू कर भी नहीं पाया था कि विकास बोल उठा, “अरे, नींबू तो लाना भूल गया. तुम ठहरो. बस मैं दो
मिनट में नींबू ले कर आता हूँ. उसके बिना आजकल खाने का मज़ा ही नहीं आता.”
उसके कमरे के नज़दीक ही सड़क पर सब्ज़ी की दूकान थी.
मैं रोकता, इस से पहले ही वह जा चुका था. मैं उठा. मेज़ पर रक्खे पत्र को उठा कर
फिर से देखने लगा. उस फटे हुए कोने के बारे में मैं उत्सुक हो गया था. अचानक मेज़
के नीचे फर्श के कोने में पड़े मुड़े हुए कागज़ के पुर्जे पर मेरी नज़र पड़ी. लपक कर
मैंने उसे उठाया. नमिता के खत का फटा हुआ हिस्सा था वह. लिखा था, “मैं माँ बनने वाली हूँ और डॉक्टर ने अबोर्शन करने
से इनकार कर दिया है.” मैंने कागज़ को उसी तरह मोड़
कर वापस फेंक दिया.
विकास नींबू ले आया. हम दोनों खाना खाने लगे. दाल
अच्छी बनी थी. खाते-खाते एकदम जैसे मुँह में कड़वाहट भर गयी. अपनी दाल में नींबू
मैंने खुद निचोड़ा था. शायद एक-आध बीज दाल में आ गया था. विकास ने पूछा, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं. नींबू का बीज था शायद,” मैंने कहा.
विकास मुस्कराया, “मैं जब भी नींबू निचोड़ता हूँ, तो बीज हमेशा निकाल देता हूँ. पूरी
सावधानी से. नहीं तो दाल का सारा मज़ा ही खराब हो जाता है.”