नए
शिखर छू लिये मगर वे सारे निर्झर किधर गये ?
नयी
सदी की भाषा में से ढाई आखर किधर गये ?
जिनके
घर में होने से घर अपना-अपना लगता था
हमको
अपने ही घर में वो करके बेघर किधर गये ?
हर मुश्किल में साथ रहेंगे ये वादा करने
वाले
संग
हमारे चलते-चलते जाने मुड़ कर किधर गये ?
अपने पथ में पथरीली चट्टानें,
कंकड़-पत्थर हैं
जिनकी
चर्चा सुनते थे वे मील के पत्थर किधर गये ?
प्रश्नों
की इस भीड़ के आगे क्यूँ खामोश खड़े हैं हम ?
कोई
ज़रा बता दे आखिर सारे उत्तर किधर गये ?
जिनके
छू लेने भर से दिल पर जादू-सा होता था
अब
वे कर माथे पर से हो कर छूमंतर किधर गये ?
घर
से सुबह चले जब मौसम खुशगवार-सा लगता था
अब
वे सुरभित मंद पवन के झोंके सर-सर किधर गये ?
अगवानी
में कोर-कसर तो कोई उठा नहीं रक्खी
आने
वाले आते-आते राह भूल कर किधर गये ?
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