बुधवार, 22 मई 2013

नए शिखर छू लिए...


नए शिखर छू लिये मगर वे सारे निर्झर किधर गये ?
नयी सदी की भाषा में से ढाई आखर किधर गये ?

जिनके घर में होने से घर अपना-अपना लगता था
हमको अपने ही घर में वो करके बेघर किधर गये ?

हर मुश्किल में साथ रहेंगे ये वादा करने वाले
संग हमारे चलते-चलते जाने मुड़ कर किधर गये ?

अपने पथ में पथरीली चट्टानें, कंकड़-पत्थर हैं
जिनकी चर्चा सुनते थे वे मील के पत्थर किधर गये ?

प्रश्नों की इस भीड़ के आगे क्यूँ खामोश खड़े हैं हम ?
कोई ज़रा बता दे आखिर सारे उत्तर किधर गये ?

जिनके छू लेने भर से दिल पर जादू-सा होता था
अब वे कर माथे पर से हो कर छूमंतर किधर गये ?

घर से सुबह चले जब मौसम खुशगवार-सा लगता था
अब वे सुरभित मंद पवन के झोंके सर-सर किधर गये ?

अगवानी में कोर-कसर तो कोई उठा नहीं रक्खी
आने वाले आते-आते राह भूल कर किधर गये ?

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