जटिल-कुटिल संदेह और सन्दर्भ हीन शंकाएँ
ऐसा कुछ हो जिस से ये आकारबद्ध हो जाएँ .
प्रायः असहनीय हो जाता धुंधलेपन का बोध
अस्पष्टता अनिश्चितता का, खालीपन का बोध .
चुभती रहतीं मन में जैसे काँच की तीखी नोकें !
किस उपाय से हम प्रतिकूल समय की धारा रोकें ?
चिंतन का क्या अर्थ? कौन सी दिशा और क्या परिणति ?
कैसे तर्क? कहाँ आस्थाएँ और कहाँ की उन्नति?
प्रश्नों की चींटियाँ रेंगती रहतीं सदा बदन पर
उखड़-उखड़ कर गिरते जाते हैं चिरस्थापित उत्तर.
टुकड़े-टुकड़े अर्थ-हीनता का होता आभास
उससे भी चिपके रहने का नहीं हमें अभ्यास .
भ्रमित-विवश है व्यक्ति और उद्देश्यविहीन समाज
इस घातक, मर्मान्तक पीड़ा का क्या करें इलाज ?
5 टिप्पणियां:
सुन्दर भाव।
चिंता सही है...उद्देश्यविहीन समाज का कोई इलाज नहीं है.
'किस उपाय से हम प्रतिकूल समय की धारा रोकें ?
चिंतन का क्या अर्थ? कौन सी दिशा और क्या परिणति ?
कैसे तर्क? कहाँ आस्थाएँ और कहाँ की उन्नति?'
*बहुत से प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं .
सौवीं पोस्ट के लिए बधाई और शुभकामनाएँ.
सैकड़ा पुरा करने की बधाई।
बेमिशाल कविता
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