गुरुवार, 8 नवंबर 2012

परदेसी की पाती

दीपावली का पर्व अपने प्रियजनों, पत्नी और बच्चों के साथ मनाया जाता है. पर कोई-कोई परदेसी किसी मजबूरी के चलते दीवाली पर भी अपने घर नहीं लौट पता. ऐसे समय में वह अपनी पत्नी के नाम क्या सन्देश देता है? प्रस्तुत है कविता:

अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?
साँझ ढले कल छत के ऊपर दीप जलाने जाओगी?

सकुचाई-सी कुछ-कुछ ठंडी हवा तुम्हें दुलराने को
केश तुम्हारे चूम-चूम कर मेरी याद दिलाने को
कानों में कुछ कह दे तो क्या मुस्का कर शरमाओगी?

एक दीप नन्हा-सा तुम देहरी के पास सजा देना
बच्चों को सुन्दर फुलझडियाँ और मिठाई ला देना
तुम मजबूरी समझ गयीं पर उनको क्या समझाओगी?

काले नभ के नीचे घर पर दीपों का पहरा होगा
ज्योति-पर्व की रात अकेलापन कितना गहरा होगा
बच्चे तो सो जायेंगे, पर तुम कैसे सो पाओगी?
अब की बार भला तुम कैसी दीपावली मनाओगी?

1 टिप्पणी:

सौरभ आर्य ने कहा…

दीपावली पर उन परिस्थितियों में बेहद सटीक कविता,,,,कविता गणित तो नहीं है पर यहां इसे सटीक ही कहूंगा. क्‍योंकि यह बिल्‍कुल वहां जा कर छूती है जहां इसे छूना चाहिए.