गुरुवार, 13 सितंबर 2012

बरसों पहले की चाँदनी

यह कविता मैंने कॉलिज के दिनों में लिखी थी. आज एक पुरानी डायरी में मिल गयी. 'जैसी है, जहाँ है' आधार पर आप के लिए प्रस्तुत है :

फैली हुई चाँदनी में ये मैली-सी परछाइयाँ
बिखर गयी हैं मौन झील के वक्षःस्थल पर काइयाँ
मस्त झूमते पत्तों के सर-सर स्वर से भी, देखो तो --
अनजानी-सी खड़ी हुई हैं यहाँ वहाँ अमराइयाँ .

अटक-अटक कर पत्तों में से उतर रही है चाँदनी
खेतों में, आँगन में आ कर बिखर गयी है चाँदनी
लटक-लटक कर टहनी पर से, भटक-भटक कर आयी है,
है कोई शर्माती दुल्हिन, अरे, नहीं है चाँदनी .

दूर-दूर तक फीके तारे धुंधले-से हैं जड़े हुए
उधर क्षितिज के पास कहीं पर पेड़ एक-दो खड़े हुए,
मेरे आँगन की मुंडेर से सटी चाँदनी झाँक रही,
नीचे गोरे-से उजास के दो टुकड़े हैं पड़े हुए.

चाँद अकेला घूम रहा है और हवा बहती जाती
चुप-चुप पानी के बहाव को आ कर कुछ कहती जाती
यादों के घावों को भी यह छेड़-छेड़ कर जाती है,
आगे बढती नहीं ज़िंदगी है पीछे रहती जाती

सरक-सरक कर खिड़की से भीतर आती है चाँदनी
चुप रहती, फिर भी लगता है कुछ गाती है चाँदनी
सिरहाने मेरे आ कर सकुचाई-सी है बैठ गयी
कभी-कभी ऐसे भी मुझको ललचाती है चाँदनी.

नहीं चाँदनी, शिशु के अंतर्मन का कोमल भाव है,
नहीं चाँदनी, यह प्रेमी का पहला-पहला चाव है ,
पिघल-पिघल कर अंतरिक्ष से प्यार अछूता टपक रहा
हृदय जिसे दुलराया करता, वह मीठा-सा घाव है.

अति पवित्र कोमल मन की स्वप्निल नारी है चाँदनी
है कोमल, पर कब कठोरता से हारी है चाँदनी?
सभी दिशाएँ गहरे चिंतन में खोई-सी लगती हैं,
गहरे चिंतन की आकुलता-सी प्यारी है चाँदनी.

क्यों न आज सब ओर पड़े इस निर्मल दर्पण में झांकें?
क्यों न इसी सुंदरता की आँखों में हम डालें आँखें?
बस, थोड़ी-सी देर दिखाई देगी ऐसी चाँदनी,
जैसे दूर गगन पर उड़ते जाते पंछी की पांखें!

2 टिप्‍पणियां:

saruabh arya. ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता है सर. 'दूर-दूर तक फीके तारे धुंधले-से हैं जड़े हुए
उधर क्षितिज के पास कहीं पर पेड़ एक-दो खड़े हुए'

Unknown ने कहा…

Sir, this one is really good. I don't have proper words to say... but in one word 'SUPERB'....This poem is Full of imagination... chand akela ghoom rha aur hwa behti jati... bahut hi pyari lines hai...