बुधवार, 12 दिसंबर 2012

शुक्र है .....

शुक्र है कि बच्चे अभी लड़ते हैं
वे खूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अंदर से निकलता है,
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में, हाथों में
साफ़ दिख जाता है.

कितनी खुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौता-परस्त
शातिर, काइयाँ और घुन्ने!

4 टिप्‍पणियां:

Shoonya ने कहा…

Just because they don't know the art of suppression.

Unknown ने कहा…

अनायास ही याद आ गई स्वयं के बचपन की बालसुलभ वाचालता , भावनाओं की उग्रता एवं मुखरता की। उम्र के बीतने के साथ साथ कैसे लुप्त होती चली जाती है बालपन की पारदर्शिता , एक निश्छल अराजकता ,बोध ही नहीं रहता। स्वयं को सभ्य एवं सुसंस्कृत दिखाने के लोभ में कहीं कुचल जाती है भीतर ही भीतर हमारी नैसर्गिक, उन्मुक्त भावनाएं।वास्तव में धन्यवादी हैं बच्चों के जो हमें अक्स दिखा देते हैं उस भूले बिसरे 'स्वयं' का जो सभ्यता की घनी परतों तले दब गया है। सारगर्भित सरलता की द्योतक यह कविता अत्यंत विचारोद्वेलक है।

Anjali Gupta ने कहा…

Very good expression, even better than the poem itself.

Onkar ने कहा…

बहुत सही कहा आपने