शनिवार, 31 अगस्त 2013

प्यार की बात नहीं...

एस्थर मैथ्यूज़ के एक लोकप्रिय गीत का हिंदी में काव्यानुवाद!


गुरुवार, 22 अगस्त 2013

मर्मस्थल पर वार हो रहे .....

मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं.

आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं.

हिलने लगते राजसिंहासन धरती करवट लेती है
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं.

कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊँचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी ये दरख्वास्त काबिले-गौर नहीं?

इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं.

ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें

खुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं? 

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

पढ़ना-पढ़ाना

बात उन दिनों की है, जब मैं एक कॉलिज में प्राध्यापक था. छात्रों की किसी हड़ताल आदि के दिनों में मुझे एक दिन गेट पर एक पुलिस वाले ने विद्यार्थी समझ कर रोक लिया.

मैंने उसे बताया कि मैं प्राध्यापक हूँ और इस कॉलिज में बच्चों को पढाता हूँ. उसने ऊपर से नीचे तक मुझे ध्यान से देखा और कहने लगा: "आप अगर पढ़ाते हैं, तो फिर ये किताबें हाथ में क्यों पकड़ी हुई हैं?"

ज़ाहिर है, उसका मतलब ये था कि पढ़ने का काम पूरा करके ही तो पढ़ाया जाता है!

जानकारी का संदेह

एक स्थिति की कल्पना कीजिये.

आपको अचानक कोई बात पता चलती है और आप आश्चर्य प्रकट करते हैं कि "मुझे अब जा कर यह पता चला है! और उधर मेरे सब सहकर्मियों को ये पहले ही मालूम है!" 

आप सोचते हैं कि मेरे 'दोस्तों' में से किसी ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?

दोस्त कहते हैं, "रहने दो. ज़्यादा बनो मत. हम मान ही नहीं सकते कि तुम्हें पता नहीं था."

अब बताइये क्या जवाब है आपके पास?

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

अर्थ का अनर्थ

दोस्तो, इधर एक लोकप्रिय हिंदी अखबार दो-तीन दिन तक 'गणतंत्र दिवस की तैयारियों' की रंगीन तस्वीरें छापता रहा! 

क्या कहा आपने? सब चलता है?

अखबार के हिसाब से, मुसलमान भाई नमाज़ 'अता' करते हैं और सड़क पर चलते वाहन 'खड्डे' की बजाय 'खदानों' में गिर जाते हैं!

अभी मेरी समझ में आया कि हिंदी अखबारों के पत्रकार अर्थ का अनर्थ क्यों करते होंगे.

दरअसल, प्रशिक्षण के दौरान उन्हें कहा जाता है कि 'अर्थ-लोभी' अपराधियों के काले कारनामों को unearth करें! 

अंग्रेज़ी और हिंदी में ज़्यादा फ़र्क तो वैसे भी अब रहा नहीं. मेरा मतलब है, जहाँ तक 'हिंदी' अखबारों का सवाल है! वे तो बस, देवनागरी लिपि में अंग्रेज़ी के अखबार बन गये हैं!

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

क्या लिक्खूँ?

वो फिर से मुझको बताएगा आज क्या लिक्खूँ,
मगर मैं सोच रहा हूँ कि कुछ नया लिक्खूँ.

वही कहूँ कि जो कहने की दिल में हसरत है,
कलम की नोक पे ठहरा जो मुद्दआ लिक्खूँ.

खुले दिमाग सवालों का सामना करके
कलम उठाऊं, निडर हो के फैसला लिक्खूँ.

वो एक बात जो सीनों में सबके घुमड़े है,
उस एक बात का मैं पूरा माजरा लिक्खूँ!