मंगलवार, 3 जून 2014

हो गया हूँ अजनबी

हो गया हूँ अजनबी मैं आज अपने आप से
डर रहा हूँ क्यों अकारण आंतरिक संताप से?

पानियों में बादलों के बिंब सा हिलता हुआ
कुनमुनाते हुए पिल्ले की तरह चलता हुआ
गर्म चमकीला हठीला दिन गया है बीत
व्यस्तताओं से भरा सा मन गया है रीत
पर नहीं है मुक्त अब भी व्यस्तता की छाप से
हो गया हूँ अजनबी मैं आज अपने आप से.

मन मेरा बच्चे-सा मिट्टी धूल में लिपटा रहा
हाथ गंदे कर के अपने घर को वापिस आ रहा
गगन लगता खाँसती बीमार बुढ़िया-सा
दूर तक भीतर कहीं फैला कुहासा-सा
काँप कर हूँ रह गया इक अजनबी पदचाप से
हो गया हूँ अजनबी मैं आज अपने आप से.

साँस की गाड़ी बहुत भारी कि खींचूँ किस तरह?
जड़ें सूखी हैं; इन्हें आँसू से सींचूं किस तरह?
सभी कुछ तो साँस के ही लिए भुगता है 
सभी कुछ के प्रति हृदय में रोष उगता है 

पर तभी कुछ याद कर दिल भर गया अनुताप से.
हो गया हूँ अजनबी मैं आज अपने आप से.