रविवार, 28 मार्च 2010

जिबह की शुरुआत

निर्मम हो जाने की हद तक
हँसना तुमसे हो पायेगा ?
हिंस्र और परपीड़क होने की सीमा तक
नाच सकोगे ?
कर पाओगे भावुकता का अभिनय,
जब आदेश मिलेगा ?

बदले सन्दर्भों में
सबसे ज़्यादा क्रूर और हिंसक तो
केवल मुस्कानें होती हैं .

ओ निष्कलुष स्वप्नजीवी !
तुम जान नहीं पाओगे-- कैसे
हँसते-गाते-मुस्काते
या मस्ती में नर्तन करते ही
पंख तुम्हारे धीरे-धीरे नुच जायेंगे .
तुम आभारस्वरूप ज़रा-सा
खिसिया कर रह जाओगे, बस !

जिबह किये जाने की जो
शुरुआत हो चुकी है
तुम उसमें
किस हैसियत से शामिल हो--
यह जान-समझ लो !

बुधवार, 24 मार्च 2010

रामनवमी के अवसर पर

चाहता है वंश-वृद्धि, कोई सुख-समृद्धि, चाँदी-सोना करे कोई धारण जहान में .
नीचे अपमान दुख सहता है इनसान, ऊँचे पद घेर खड़े चारण जहान में .
करे इंतज़ाम सारे, मन को आराम नहीं, सुख बने दुखों का भी कारण जहान में .
चाहो जो निवारण, तरीका असाधारण है रामजी के नाम का उच्चारण जहान में !

रविवार, 21 मार्च 2010

कब्रिस्तान में बाज़ार

वीतरागी हो चला था मन .
कँगूरे सामने की भीत के
जर्जर दिखाई दे रहे थे .
वनस्पतियों, पेड़-पौधों औ' लताओं
से घिरी पगडंडियों पर
हर तरफ पसरा हुआ था
निपट खालीपन .
और ही कुछ लग रहा था
सृष्टि का फैलाव
बेतरतीब बेमानी .
'सच यही है अंततः' ---
दुहरा रहा था वीतरागी मन .
'खोखली हैं ये ख़रीद-फ़रोख्त की बातें
मुलाकातें
जिन्हें हम सच समझते हैं .'
बस यही सब सोचते-गुनते
अचानक
एक पत्थर पर लिखा देखा---
'फ़ुल बॉडी मसाज'
जिसके साथ ही फिर
साफ़ देखी जा रही थी
दस अंकों वाली इक संख्या .
यूँ उकेरी गयी मानो
पा गयी अमरत्व का वरदान !

बुधवार, 17 मार्च 2010

कब्रिस्तान में सूर्योदय

कोई नियम नहीं टूटा
नहीं विच्छिन्न हुआ कोई वैधानिक प्रावधान
एक मनभावन मुस्कान तो थी
छतनार दरख्तों के होठों पर
लेकिन बारिश से वह नम हो चुकी थी
कुछ फीकी और कुछ कम हो चुकी थी .
फैलते उजास में आभास था
थमे होने का.
थोड़ी देर पहले ही
थम गयी थीं बूँदें
हवा की परतों में कैद .
हर कोई चुप था लेकिन मुस्तैद .
नामालूम रहीं सारी तैयारियाँ
कहीं कोई संकेत नहीं था
किसी उत्सव या सज्जा का .
ऐसे में उसने खिड़की से झाँका .
हुआ सब कुछ सहज ही
कोई नियम नहीं टूटा .
बस सुनहरी हुईं पेड़ों की फुनगियाँ
सरसराती हवा के साथ
धीमी गुनगुनाहट में
परिंदों की सुगबुगाहट में
किसी के लिए तो था ही उसका सन्देश
'उठ जाग, मुसाफिर, भोर भई ....'

रविवार, 7 मार्च 2010

नुक्कड़ वाली तुलसी बाई

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बाल-कविता

पैंट कमीज़ें और साड़ियाँ
ले जाती है तुलसी बाई
कपडे सभी इस्तरी करके
लौटाती है तुलसी बाई .

छोटा कद है, रंग साँवला
माथे पर बिंदी है लाल
अपने छोटे बच्चों का भी
रखती है वह खूब ख़याल .

हिम्मत से है किया सामना
जब भी कभी मुसीबत आयी .
बड़ी मेहनती नारी है यह
नुक्कड़ वाली तुलसी बाई .

सोमवार, 1 मार्च 2010

तस्वीरों के रोग बहुत हैं...

तस्वीरों के रोग बहुत हैं .

आँखें बँधुआ बन जाती हैं,
छिन जाती मन की आज़ादी,
तय हो जाती चिंतन-धारा,
उड़ते पाखी का ऊर्ध्वंग
वेग भी सीमित हो जाता है .
सुविधा-सी लगती है शायद
इसीलिये
पक्षधर बनें जो तस्वीरों के,
जग में ऐसे लोग बहुत हैं !
तस्वीरों के रोग बहुत हैं .

शब्द ज़रा मेहनत करने से ही
सधते हैं .
लेकिन हर कल्पना
खुले में
पा सकती विस्तार शब्द से .
शब्द मुक्ति के वाहक बनते,
चिंतन के निर्झर का वेग
बढ़ाने वाले,
वस्तु-जगत के चक्रव्यूह में
हमें सुझाते नए रास्ते.

इन पर तस्वीरों के
कसने लगे शिकंजे.
तस्वीरों की बहुतायत है .
किसी संक्रमण की शुरुआत
हुई जाती है !