ओ मेरी अलिखित कविते!
अनिश्चित है तुम्हारा रूप, पर संभावनाएँ अनगिनत हैं.
शब्द, भाषा, छंद के बंधन नहीं तुम पर,
कि तुमने कागज़ों की खुरदरी, मैली, कंटीली-सी ज़मीनों पर
नहीं रक्खे हैं अपने पाँव अब तक,
नहीं तुम जानतीं
उड़ते हुए, स्वच्छंद, बन्धनहीन भावों को
पकड़ कर पंक्तियों में खड़ा करना
और उनको बाँधना
दुस्साध्य है कितना,
कि कैसे कुछ अमूर्त, अनाम-से अनुभाव
हो विक्षिप्त
अपने लिए जा कर खोजते
अपनी सही पहचान,
कि कैसे अनकहा, अव्यक्त रह जाता
सदा वह एक ही कथनीय,
कि कितने कटु कटाक्ष
प्रतिक्रिया के रूप में आ कर
तुम्हारे स्वत्व पर, अस्तित्व पर
उछालेंगे अतर्कित प्रश्न --
"क्यों हो तुम?"
कि वे ही लोग जो अपने विषय में
इस तरह के प्रश्न का उत्तर नहीं थे दे सके अब तक,
वही अब प्रश्न पूछेंगे!
नहीं मैं चाहता सचमुच
कि तुम अलिखित रहो, अनजान, दुनिया से अपरिचित,
परिधियों के पक्षधर हम सब यहाँ पर,
और फिर यूँ भी
तुम्हें आकार देने की
इस आदिम विवशता का
मैं बहुत सम्मान करता हूँ!
अनिश्चित है तुम्हारा रूप, पर संभावनाएँ अनगिनत हैं.
शब्द, भाषा, छंद के बंधन नहीं तुम पर,
कि तुमने कागज़ों की खुरदरी, मैली, कंटीली-सी ज़मीनों पर
नहीं रक्खे हैं अपने पाँव अब तक,
नहीं तुम जानतीं
उड़ते हुए, स्वच्छंद, बन्धनहीन भावों को
पकड़ कर पंक्तियों में खड़ा करना
और उनको बाँधना
दुस्साध्य है कितना,
कि कैसे कुछ अमूर्त, अनाम-से अनुभाव
हो विक्षिप्त
अपने लिए जा कर खोजते
अपनी सही पहचान,
कि कैसे अनकहा, अव्यक्त रह जाता
सदा वह एक ही कथनीय,
कि कितने कटु कटाक्ष
प्रतिक्रिया के रूप में आ कर
तुम्हारे स्वत्व पर, अस्तित्व पर
उछालेंगे अतर्कित प्रश्न --
"क्यों हो तुम?"
कि वे ही लोग जो अपने विषय में
इस तरह के प्रश्न का उत्तर नहीं थे दे सके अब तक,
वही अब प्रश्न पूछेंगे!
नहीं मैं चाहता सचमुच
कि तुम अलिखित रहो, अनजान, दुनिया से अपरिचित,
परिधियों के पक्षधर हम सब यहाँ पर,
और फिर यूँ भी
तुम्हें आकार देने की
इस आदिम विवशता का
मैं बहुत सम्मान करता हूँ!
5 टिप्पणियां:
धन्यवाद, 'मयंक' जी.
स्वच्छंद ,अमूर्त भावों को कागज़ की पथरीली ज़मीन पर मूर्त रूप देने की कवि मन की उत्सुकता एवं विवशता तथा उसी रचना के अस्तित्व पर कटु कटाक्षों के रूप में प्रश्न कि," क्यों हो तुम?"पर कवी मन की पीड़ा बिलकुल ऐसी ही है जैसे एक अजन्मी,कोमल,अनछुई बिटिया को यथार्थ की कटीली रौशनी में लाने की एक माँ की उत्सुकता एवं अपनी उसी रचना के स्वत्व पर संसार के कटु प्रश्न की," क्यों हो तुम?" पर माँ की वेदना। वास्तव में अत्यंत दुस्साध्य है उन्मुक्त विचारों को परिधि में बांधना। अत्यंत कोमल भावों को इस सौंदर्य से काव्य सौष्ठव से अलंकृत करना जितना प्रशंसनीय है उतना ही रोमांचक है एक अलिखित कविता के सम्मान में एक कविता को जन्म देना।
अंजलि गुप्ता जी, आपकी अत्यंत सारगर्भित और सार्थक टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ. इस से मुझे और अधिक गंभीरता से रचना-कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिली है.
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