गुरुवार, 22 अगस्त 2013

मर्मस्थल पर वार हो रहे .....

मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं.

आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं.

हिलने लगते राजसिंहासन धरती करवट लेती है
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं.

कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊँचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी ये दरख्वास्त काबिले-गौर नहीं?

इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं.

ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें

खुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं? 

6 टिप्‍पणियां:

Aparna Sharma ने कहा…

Bilkul badlega sir, hamari kami hai ki hum prayas karna to door uske baare me sochna bhi nahi chahte
.

Dr ajay yadav ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति
“जीवन हैं अनमोल रतन !"

Madan Mohan Saxena ने कहा…

सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति. कमाल का शब्द सँयोजन
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/

Unknown ने कहा…

This is really very nice poem sir....
but sir what the meaning of "Kaur" (bhukhi janta ko bhi kaur nhi)?...

Unknown ने कहा…

Bahut acha, Sir

Unknown ने कहा…
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