बुधवार, 4 सितंबर 2013

कृपया कुतर्क मत दें!

दर्शकों और पाठकों में सुरुचि का विकास करने की ज़िम्मेदारी तो मीडिया अरसा पहले ही पूरी तरह छोड़ चुका है. अब उसकी बात करना भी शायद आपको हास्यास्पद लगे.

मैं बात कर रहा हूँ उस तर्क की जो अक्सर दिया जाता है: कि मीडिया वही दिखाता या छापता है जो दर्शक/ पाठक देखना/ पढ़ना चाहते हैं. हर कोई जानता है कि मानव मन की निम्नतर प्रवृत्तियों का शोषण करने के लिए सेक्स और हिंसा को बार-बार दिखा कर एक तरह से कंडीशनिंग कर के व्यापारिक आर्थिक लाभ कमाना मीडिया की परिपाटी बन चुका है. यह बड़ी पुरानी बहस है कि समाज और कला-साहित्य दोनों में से कौन किसे प्रभावित करता है.

बहरहाल अब मीडिया की बढ़ी हुई ताकत, उसका विस्तार, उसकी पहुँच का दायरा ये सब एक तरफ हैं और दर्शक-पाठक की vulnerability निरीहता दूसरी तरफ. ऐसे में ऊपर दिये गये तर्क जैसी बातें सारी ज़िम्मेदारी 'समाज' नाम की अमूर्त चीज़ पर डाल देना चाहते हैं! यह मेरी चिंता का विषय है!

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