बुधवार, 4 सितंबर 2013

दर्पण कहीं टूट न जाए!

कल्पना कीजिये कि कोई आपका दर्पण तोड़ दे, तो आप अपनी सूरत कहाँ देखेंगे?

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है.

उस दर्पण की सुरक्षा आज किसकी प्राथमिकता है? उस वर्ग की तो निश्चित रूप से नहीं, जिसका मीडिया और सत्ता और व्यापार जगत में वर्चस्व है!

उनकी कोशिश है कि यह टूट ही जाए!

कोई टिप्पणी नहीं: