मंगलवार, 10 सितंबर 2013

शेखो-बरहमन को लगते हैं.....

अरसा पहले लिखी गयी यह रचना आज के हालात पर भी कमोबेश लागू हो रही है -- इसका बहुत अफ़सोस है!

शेखो-बरहमन को लगते हैं अपने दीन-धरम पर खतरे
लेकिन सच्चाई तो ये है, मँडराते हैं हम पर खतरे.

उपवन में कुचले गुलाब का सहमी बुलबुल का मतलब है
खुशबू की हत्या की कोशिश, घिरे हुए सरगम पर खतरे.

ऐसे में हमला करने को केवल एक गुलेल बहुत है
हवा ढो रही घड़े ज़हर के, हावी हैं मौसम पर खतरे.

सुनो, शराफ़त मियाँ, तुम्हारी नेक जिंदगी की राहों में
पग-पग पर होंगी विपदाएँ, होंगे कदम-कदम पर खतरे.

एक निरंतर दहशत है क्या आम आदमी की मजबूरी
नहीं सिर्फ उत्सव पर अब तो होते हैं मातम पर खतरे.

बंदूकें चुप हो जायेंगी ऐसे तो आसार नहीं हैं

अलबत्ता अब साफ़ दिखाई देने लगे कलम पर खतरे. 

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