इस विषय में हमारे सवाल का सही उत्तर डॉक्टर रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने दिया है । १९३५ में जब प्रेमचंद ने 'हंस' के सम्पादक श्री के एम् मुंशी के साथ सह-सम्पादक के रूप में कार्य आरम्भ किया, तो सम्पादक-द्वय का नाम इस प्रकार दिया गया कि 'मुंशी' शब्द प्रेमचंद के नाम के साथ जुड़ने का आभास हुआ। बाद में यही नाम प्रचलित हो गया ।
अगर आप चाहें तो ऐसे प्रश्न पूछने का क्रम जारी रखा जाए । अपनी राय ज़रूर दीजिये ।
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
बुधवार, 26 अगस्त 2009
क्या प्रेमचंद 'मुंशी' थे ?
सवाल यह है कि क्या प्रेमचंद 'मुंशी' थे ? उनके जीवन-परिचय से ऐसा कुछ पता नहीं चलता । अगर वे मुंशी नहीं थे, तो आख़िर क्यों उन्हें यह 'उपाधि' दी गयी है ? इन सवालों के सही जवाब आपके पास हैं, तो संक्षिप्त टिप्पणी के रूप में लिखें। उत्तर इसी ब्लॉग पर अगले पोस्ट में दिया जाएगा ।
सोमवार, 24 अगस्त 2009
बादल की छाँव
कभी चमकती धूप कभी यह बोझीले बादल की छाँव ।
लिपट गयी है पल भर को मुझसे गीले बादल की छाँव ।
बारिश आयी, सांझ ढले यह गाती हुई बयार चली--
"अगर शेष है प्यास अभी, पी ले पीले बादल की छाँव " ।
उड़ता हुआ वायुमंडल में अस्थिर है अस्तित्व मेरा
जैसे किसी उदास, शून्य-से, दर्दीले बादल की छाँव ।
जीने के उपकरण सभी हैं-- फूल, चाँदनी, नील गगन,
ये पहाड़, ये नदियाँ, झरने, ये टीले, बादल की छाँव ।
आती है, तो सारा जग बदला-बदला-सा लगता है,
याद तुम्हारी कहूँ इसे या सपनीले बादल की छाँव ?
लिपट गयी है पल भर को मुझसे गीले बादल की छाँव ।
बारिश आयी, सांझ ढले यह गाती हुई बयार चली--
"अगर शेष है प्यास अभी, पी ले पीले बादल की छाँव " ।
उड़ता हुआ वायुमंडल में अस्थिर है अस्तित्व मेरा
जैसे किसी उदास, शून्य-से, दर्दीले बादल की छाँव ।
जीने के उपकरण सभी हैं-- फूल, चाँदनी, नील गगन,
ये पहाड़, ये नदियाँ, झरने, ये टीले, बादल की छाँव ।
आती है, तो सारा जग बदला-बदला-सा लगता है,
याद तुम्हारी कहूँ इसे या सपनीले बादल की छाँव ?
मंगलवार, 18 अगस्त 2009
हुआ उजाला
बचपन में सुबह-सुबह बिस्तर पर आँखें बंद रख कर आसपास की आवाजें सुनना मुझे अच्छा लगता था । उसी अनुभव से उपजी है यह बाल-कविता ।
अंधकार की काली चादर धरती पर से सरकी
हुआ उजाला जग में, कोई बात नहीं है डर की
चीं-चीं चीं-चीं चिड़िया बोली डाली पर कीकर की
कामकाज बस शुरू हो गया सब ने खटर-पटर की
लाया है अख़बार ख़बर सब बाहर की, भीतर की
घंटी बजी, दूध मिलने में देर नहीं पल भर की
मैं सुनता रहता हूँ हर आवाज़ रसोईघर की
मम्मी के जादू से यह लो, सीटी बजी कुकर की !
अंधकार की काली चादर धरती पर से सरकी
हुआ उजाला जग में, कोई बात नहीं है डर की
चीं-चीं चीं-चीं चिड़िया बोली डाली पर कीकर की
कामकाज बस शुरू हो गया सब ने खटर-पटर की
लाया है अख़बार ख़बर सब बाहर की, भीतर की
घंटी बजी, दूध मिलने में देर नहीं पल भर की
मैं सुनता रहता हूँ हर आवाज़ रसोईघर की
मम्मी के जादू से यह लो, सीटी बजी कुकर की !
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
कागजों की किश्तियाँ
दूर तक फैला हुआ जल, कागजों की किश्तियाँ ।
खोजती हैं कोई सम्बल कागजों की किश्तियाँ ।
पेश्तर इसके कि छू लें क्षितिज पर छाई घटाएं
ख़ुद ही मिट जाएँगी पागल कागजों की किश्तियाँ ।
हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।
रिस रहा है खून पानी लाल पर होता नहीं है
मर न जायें आज घायल कागजों की किश्तियाँ ।
बेबसी में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते हैं
आदमी हैं सिर्फ़ माँसल कागजों की किश्तियाँ ।
खोजती हैं कोई सम्बल कागजों की किश्तियाँ ।
पेश्तर इसके कि छू लें क्षितिज पर छाई घटाएं
ख़ुद ही मिट जाएँगी पागल कागजों की किश्तियाँ ।
हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।
रिस रहा है खून पानी लाल पर होता नहीं है
मर न जायें आज घायल कागजों की किश्तियाँ ।
बेबसी में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते हैं
आदमी हैं सिर्फ़ माँसल कागजों की किश्तियाँ ।
बुधवार, 5 अगस्त 2009
घटती जाती दिन-दिन ताकत जेबों की
घटती जाती दिन-दिन ताकत जेबों की ।
घर पर आती नहीं टोकरी सेबों की ।
लगता है महँगाई हमसे लेगी छीन
चाकलेट, टॉफी, बिस्किट मीठे नमकीन ।
आइसक्रीम खाना भी कम हो जाएगा ।
फीका गरमी का मौसम हो जाएगा ।
नहीं खिलौने मिल पायेंगे मनचाहे ।
सपनों पर भी अंकुश होंगे अनचाहे ।
एक-एक करके होती जायेंगी बंद
वे चीज़ें जो बच्चों को हैं बड़ी पसंद ।
यही सोच कर है अपना माथा ठनका
क्या होगा भगवान हमारे बचपन का ?
घर पर आती नहीं टोकरी सेबों की ।
लगता है महँगाई हमसे लेगी छीन
चाकलेट, टॉफी, बिस्किट मीठे नमकीन ।
आइसक्रीम खाना भी कम हो जाएगा ।
फीका गरमी का मौसम हो जाएगा ।
नहीं खिलौने मिल पायेंगे मनचाहे ।
सपनों पर भी अंकुश होंगे अनचाहे ।
एक-एक करके होती जायेंगी बंद
वे चीज़ें जो बच्चों को हैं बड़ी पसंद ।
यही सोच कर है अपना माथा ठनका
क्या होगा भगवान हमारे बचपन का ?
रविवार, 2 अगस्त 2009
परदे होंगे, हम अलबत्ता देखेंगे
परदे होंगे, हम अलबत्ता देखेंगे ।
बैठ झरोखे 'जग का मुजरा' देखेंगे ।
क्या-क्या है इस नई सदी ने दिखलाया
और न जाने आगे क्या-क्या देखेंगे ।
वक़्त सदाएं देगा जब चौराहे पर,
ऊंचा सुनने वाले नीचा देखेंगे ।
आँख निरंतर खुली रखेंगे, तब जा कर
एक सुनहरे कल का सपना देखेंगे ।
वादा उसका इक मज़बूत इरादा था,
आज मगर वह बोला-"अच्छा, देखेंगे" ।
हमने सिर्फ़ सुना है दुनिया बदलेगी,
लेकिन बच्चे इसे बदलता देखेंगे ।
बैठ झरोखे 'जग का मुजरा' देखेंगे ।
क्या-क्या है इस नई सदी ने दिखलाया
और न जाने आगे क्या-क्या देखेंगे ।
वक़्त सदाएं देगा जब चौराहे पर,
ऊंचा सुनने वाले नीचा देखेंगे ।
आँख निरंतर खुली रखेंगे, तब जा कर
एक सुनहरे कल का सपना देखेंगे ।
वादा उसका इक मज़बूत इरादा था,
आज मगर वह बोला-"अच्छा, देखेंगे" ।
हमने सिर्फ़ सुना है दुनिया बदलेगी,
लेकिन बच्चे इसे बदलता देखेंगे ।
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