मंगलवार, 11 अगस्त 2009

कागजों की किश्तियाँ

दूर तक फैला हुआ जल, कागजों की किश्तियाँ ।
खोजती हैं कोई सम्बल कागजों की किश्तियाँ ।

पेश्तर इसके कि छू लें क्षितिज पर छाई घटाएं
ख़ुद ही मिट जाएँगी पागल कागजों की किश्तियाँ ।

हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।

रिस रहा है खून पानी लाल पर होता नहीं है
मर न जायें आज घायल कागजों की किश्तियाँ ।

बेबसी में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते हैं
आदमी हैं सिर्फ़ माँसल कागजों की किश्तियाँ ।

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।
सारी रचना ही काबिले तारीफ है बधाई