सन्दर्भ: भोपाल गैस काण्ड के कई वर्ष बाद किसी पत्रकार के सवाल का एक गैस-पीड़ित महिला ने यह जवाब दिया-"हमें तो जी बस ये 'लम्बर' (नंबर) वाली पर्ची मिली है ।" कह कर उसने मुडी-तुड़ी पर्ची खोल कर दिखायी ।
कितनी बार पेश कर- कर के जेब में डाली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।
गैस हवा में डैने फैलाये थी डायन जैसे
फन फैलाये घूम रही ज़हरीली नागन जैसे
अपनी साँसें भी लगती हैं अपनी दुश्मन जैसे ।
लुट कर यूँ खोखले हुए, हों खाली बर्तन जैसे ।
हाथ हमारे आयी है तो बस ये खाली पर्ची ।
बीमारी ने इस कमज़ोर बदन में सेंध लगाई
भूख-प्यास के मारे अपनी जान गले तक आई
तब धकियाने वालों ने ये पर्ची हमें थमाई
इधर दिखाई, उधर दिखाई, कितनों से पढवाई ।
बिना दवाई राशन के लगती है गाली पर्ची ।
जो फ़रियाद करे वो जा कर लाठी-गोली खाए
उस डायन से बढ कर निकले, जो भी मिलने आए
स्वारथ के भूखे इन गलियों में आ कर मंडराए
कई दिनों तक सिर्फ़ अँगूठे कागज़ पर लगवाये ।
वे ही लोग आज कहते हैं ये है जाली पर्ची ।
कितने और तरीकों से है हमें मारना बाकी ?
ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर है अपनी बिपदा की
उन पर हाथ कहाँ डालेगी कोई वर्दी खाकी ?
कम-से-कम मिल जाए हमको अपना चूल्हा-चाकी ।
ले लो हमसे वापस अपने जैसी काली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।
4 टिप्पणियां:
बहुत बिंदास भावपूर्ण रचना .... आभार
ले लो हमसे वापस अपने जैसी काली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।
मार्मिक प्रस्तुति!
Padh kar laga jaise ye sab maine apni aankho se dekha hai...
Bahut Khoob Sir!
Atayant Marmik Chitran
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