शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

धूप ज़रा मुझ तक आने दो

धूप ज़रा मुझ तक आने दो !

सुनो, शीत से काँप रहा हूँ
तन बाँहों से ढाँप रहा हूँ
कैसे राहत मिल सकती है
सूरज से मैं भाँप रहा हूँ ।

नहीं मूँगफली भुनी हुई, बस
थोड़ी गरमाहट खाने दो ।

कब से आगे खड़े हुए हो
बीच में आ कर अड़े हुए हो
खूब समझते हो सारा कुछ
फिर भी चिकने घड़े हुए हो ।

ऐसा क्या है ? मान भी जाओ,
जाने दो, यह ज़िद जाने दो ।

खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !

किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।

धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।

14 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !

किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।

धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।

बहुत सुन्दर सन्देश देती कविता।।
बधाई!

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

कब से आगे खड़े हुए हो
बीच में आ कर अड़े हुए हो
खूब समझते हो सारा कुछ
फिर भी चिकने घड़े हुए हो ।

सुंदर भाव..कविता बहुत ही अच्छी लगी..बधाई

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण व सुन्दर रचना है।बधाई।

अजय कुमार झा ने कहा…

आपके ब्लोग पर पहले आखों को सुकून मिलता है फ़िर रचनाओं को पढ के मन को शांति

Unknown ने कहा…

पहला कमाल ब्लॉग का सौन्दर्य
दूसरा कमाल प्रकृति का सौन्दर्य
तीसरा कमाल बर्फ़ का सौन्दर्य

____कमालों का कमाल भाषा का सौन्दर्य

इस विषय पर इस से बेहतर शायद कुछ नहीं हो सकता ....

वाह !
वाह !

बधाई !

bijnior district ने कहा…

खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !

किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।

धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।

शानदार रचना

डॉ .अनुराग ने कहा…

अद्भुत कहा है ....

Smart Indian ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना!

Manu ने कहा…

Sachmuch bahot umdaa likha hai Sir !

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत सुंदर अती उत्तम रचना...
:-)

शारदा अरोरा ने कहा…

bahut badhiya ...title hi bha gaya ...

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…

एक दिन मैं "धुप के साये" में आया और कहा :
अह धुप मै सारी उम्र तेरे आँचल की गर्माहट
को महसूस करना चाहता हूँ
तोह धुप हस के खिली और मुस्करा के बोली
यह कैसे मुमकिन है
मेरा काम है सारे चमन मैं रौशनी करना।।।
और अब सब काँटों पे खिलती है धुप
चमन मैं बस "एक गुल" को छोड़ कर-- बरजिंदर सिंह रंधावा

Anjali Gupta ने कहा…

धरातल पर अत्यंत सरल प्रतीत होने वाले शब्दों में छुपी गहनता आज के मानव की वास्तविक मानसिकता को उजागर करती है। क्या यही नहीं है आज के स्वार्थी मानव की वास्तविकता- कोई व्यक्तिगत लाभ न होने पर भी दूसरे के सुख में बाधा बनना? प्रकृति प्रदत्त संपदा पर भी मनुष्य एकाकी अधिकार चाहता है, सांसारिक सुखों का तो प्रश्न ही छोड़ो। इन्ही शिथिल भावनाओं की शीत से कांप रही है मानवता। हर व्यक्ति अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है, सत्य ही तो है, ऐसा कौन होगा जिसे शिथिल पड़े शरीर पर सौहार्दता की गर्माहट की आवश्यकता न हो। शब्दों के माध्यम से सर्दी और धूप का चित्रण इतना जीवंत एवं चित्रवत है कि स्वयं को ठिठुरन का एहसास और धूप की चाहत होने लगती है।अत्यंत सौन्दर्यपूर्ण एवं सार्थक कविता है।
"धूप की चादर मेरे सूरज से कहना भेज दे
गुरबतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत है बहुत।"