मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

रात दिसंबर की

मौन रहस्यों की करती रखवाली रात दिसंबर की ।
चींटी की मानिंद चल रही काली रात दिसंबर की ।

खोई है अतीत में फिर भी गूँज रही उसकी आवाज़
कैसी थी वह हाथ से छूटी थाली रात दिसंबर की ?

कमरा, बिस्तर, टेबल, कुर्सी औ' उदास-सी दो आँखें
इतना कुछ फिर भी लगती है ख़ाली रात दिसंबर की ।

ठिठुरे खड़े पेड़ गुमसुम है आसमान भी जाग रहा
भूखे पेट मजूर को लगती गाली रात दिसंबर की ।

ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।

दिसम्बर के माध्यम से शीत ऋतु का सुन्दर चित्रण!

अजय कुमार झा ने कहा…

वाह क्या खूब बयां की आपने रात दिसंबर की और क्या खूब सुंदर है ब्लोग आपका .....

shama ने कहा…

ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।
waise to harek panki sundar hai...tasveer bahut khoob hai!
Rachna manme ek soonapan bhar gayi..

Unknown ने कहा…

ati sundar!

Dhyan Prem ने कहा…

fantastic ,realistic ,when I start READING AM ALSO FEELING IMAGINATIVE VIBERATION OF MY BODY AS AFTER TAKING BATH IN COLD WINTER .

Dhyan Prem ने कहा…

fantastic ,realistic ,when I start READING AM ALSO FEELING IMAGINATIVE VIBERATION OF MY BODY AS AFTER TAKING BATH IN COLD WINTER .