मंगलवार, 5 जनवरी 2010

यह ग़ज़ल गाने के लिए नहीं

यह ग़ज़ल गाने के लिए नहीं रची गयी; तत्सम शब्दों और संयुक्ताक्षरों के कारण संभवतः गेय नहीं बन पायी, फिर भी इस के छंद-विधान आदि पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत है ।

भीतर भी घिरता आता है बाहर जो फैला धुंधलापन ।
धुंधलेपन-सा मेरा जीवन, मेरे जीवन-सा धुंधलापन ।

सूर्यातप से दृश्य-जगत पर से परदे जब उठ जाते हैं,
तब खिसिया कर कहाँ फेर मुँह खो जाता गहरा धुंधलापन ?

प्रायः अस्थायी होता है संध्या का झुटपुटा चतुर्दिक
सदा अनिर्णय-सा मेरे मन पर छाया रहता धुंधलापन ।

अस्पष्टता जहाँ जा कर छँटती, पराजिता हो जाती है,
वहाँ पहुँचने से पहले हठपूर्वक ठहर गया धुंधलापन ।

नहीं बनाता केवल मेरी आँखों को ही यह असहाय,
स्पर्श, गंध, रस, स्वर को भी अग्राह्य बना देता धुंधलापन ।

अन्वेषण की प्रबल एषणा और हमारी जिज्ञासाएँ ---
एक ओर ये और दूसरी ओर यह भला क्या ? धुंधलापन ।

7 टिप्‍पणियां:

Alpana Verma ने कहा…

'अस्पष्टता जहाँ जा कर छँटती, पराजिता हो जाती है,
वहाँ पहुँचने से पहले हठपूर्वक ठहर गया धुंधलापन ।'
waah! waah!bahut umda!



Gazal grammar ka gyan nahin hai..haan poori gazal bahut hi khubsurat hai.

Neeraj Kumar ने कहा…

दधिची साहब,
मेरे ख्याल से लिखने वाले को चिंता करनी ही नहीं चाहिए गेयता की...
आपके ग़ज़ल की बात ही कुछ और है...साहित्यिक और शाब्दिक नज़रिए से उम्दा है इसकी बुनावट और बहुत ही भावपूर्ण भी है...
हो सकता है की नए लोगों को अर्थ समझाने में कठिनाई हो परन्तु जो साहित्य के प्रेमी हैं वो अवश्य पसंद करेंगे आपकी रचना को...ऐसी आशा है...
नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ...

ghughutibasuti ने कहा…

रचना बहुत पसन्द आई। समय समय पर शायद सभी के जीवन पर यह धुंधलापन छा जाता है। कुछ ऐसे ही भावों में मैंने कभी एक कविता धुँध/कोहरे पर लिखी थी।
घुघूती बासूती

aarkay ने कहा…

दधीची जी , गेयता को रखिये ताक पर. सुंदर भावों की क्या बेजोड़ अभ्य्वाक्ति है !
साधुवाद !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भीतर भी घिरता आता है बाहर जो फैला धुंधलापन ।
धुंधलेपन-सा मेरा जीवन, मेरे जीवन-सा धुंधलापन ।

बहुत ही सुन्दर!
पूरे 100 में से 100 अमक देता हूँ जी!

Dinesh Dadhichi ने कहा…

प्रोत्साहन और अनुशंसा के लिए आप सब का आभारी हूँ .

Dinesh Dadhichi ने कहा…

प्रोत्साहन और अनुशंसा के लिए आप सब का आभारी हूँ .