बादल से निकल के आयी हुई एक बूँद
हुई है सफल जल के ही कल-कल में .
बत्तियाँ अनेक, लड़ी एक है प्रकाशमान
एक ही विद्युत् का प्रवाह है सकल में .
सदियों पुराना हो अँधेरा घेरा डाले हुए
भाग जाता है दिये की रोशनी से पल में .
दिये से जलाएँ दिया, देखते ही देखते यूँ
रमे हों 'दधीचि' उत्सवों की हलचल में !
5 टिप्पणियां:
बेहतर...
सुन्दर कविता!
घुघूती बासूती
बढ़िया अशआरों से सजी हुई गजल के लिए बधाई!
'बादल से निकल के आयी हुई एक बूँद
हुई है सफल जल के ही कल-कल में .'
behtreen rachna ,sundar sandesh deti hui.
सदियों पुराना हो अँधेरा घेरा डाले हुए
भाग जाता है दिये की रोशनी से पल में .
दिये से जलाएँ दिया, देखते ही देखते यूँ
दिनेश जी सीख देती सुंदर कविता लिखी है आपने और ग़ज़ल भी लाजवाब ......
भीतर भी घिरता आता है बाहर जो फैला धुंधलापन ।
धुंधलेपन-सा मेरा जीवन, मेरे जीवन-सा धुंधलापन ।
वाह ......!!
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