शनिवार, 9 जनवरी 2010

बादल से निकल के आई हुई एक बूँद

बादल से निकल के आयी हुई एक बूँद
हुई है सफल जल के ही कल-कल में .
बत्तियाँ अनेक, लड़ी एक है प्रकाशमान
एक ही विद्युत् का प्रवाह है सकल में .
सदियों पुराना हो अँधेरा घेरा डाले हुए
भाग जाता है दिये की रोशनी से पल में .
दिये से जलाएँ दिया, देखते ही देखते यूँ
रमे हों 'दधीचि' उत्सवों की हलचल में !

5 टिप्‍पणियां:

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बेहतर...

ghughutibasuti ने कहा…

सुन्दर कविता!
घुघूती बासूती

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बढ़िया अशआरों से सजी हुई गजल के लिए बधाई!

Alpana Verma ने कहा…

'बादल से निकल के आयी हुई एक बूँद
हुई है सफल जल के ही कल-कल में .'

behtreen rachna ,sundar sandesh deti hui.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सदियों पुराना हो अँधेरा घेरा डाले हुए
भाग जाता है दिये की रोशनी से पल में .
दिये से जलाएँ दिया, देखते ही देखते यूँ

दिनेश जी सीख देती सुंदर कविता लिखी है आपने और ग़ज़ल भी लाजवाब ......

भीतर भी घिरता आता है बाहर जो फैला धुंधलापन ।
धुंधलेपन-सा मेरा जीवन, मेरे जीवन-सा धुंधलापन ।
वाह ......!!