बुधवार, 17 मार्च 2010

कब्रिस्तान में सूर्योदय

कोई नियम नहीं टूटा
नहीं विच्छिन्न हुआ कोई वैधानिक प्रावधान
एक मनभावन मुस्कान तो थी
छतनार दरख्तों के होठों पर
लेकिन बारिश से वह नम हो चुकी थी
कुछ फीकी और कुछ कम हो चुकी थी .
फैलते उजास में आभास था
थमे होने का.
थोड़ी देर पहले ही
थम गयी थीं बूँदें
हवा की परतों में कैद .
हर कोई चुप था लेकिन मुस्तैद .
नामालूम रहीं सारी तैयारियाँ
कहीं कोई संकेत नहीं था
किसी उत्सव या सज्जा का .
ऐसे में उसने खिड़की से झाँका .
हुआ सब कुछ सहज ही
कोई नियम नहीं टूटा .
बस सुनहरी हुईं पेड़ों की फुनगियाँ
सरसराती हवा के साथ
धीमी गुनगुनाहट में
परिंदों की सुगबुगाहट में
किसी के लिए तो था ही उसका सन्देश
'उठ जाग, मुसाफिर, भोर भई ....'

4 टिप्‍पणियां:

Amitraghat ने कहा…

वाकई में बहुत ही शानदार कविता ,क्या शब्द चुने आपने.............."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सशक्त एवं सुन्दर अभिव्यक्ति!

आशीष दाधीच ने कहा…

सच में "कोई नियम नहीं टुटा " |
शब्दों का चयन बड़ा ही लाजवाब हैं |
बहुत खूब |

Alpana Verma ने कहा…

सकारात्मक भाव युक्त .
**बहुत उम्दा रचना है***
आप जैसा उत्कृष्ट लिखने वालों से धनी है हिंदी ब्लॉगजगत .
आभार