शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

एक दृश्य एक एहसास: तादात्म्य



साँस लेता हुआ-सा वातावरण
अनजाने, अनदेखे, निःस्वर
मेरी साँसों में घुल-मिल कर
होता एकाकार ?
अथवा
मैं ही धीरे-धीरे
मिट-मिट कर
इस दृश्य-फलक पर

बनता जाता हूँ संसार ?  

रविवार, 19 जनवरी 2014

देखता रह गया.......

क्या हुआ यकबयक, देखता रह गया.
मैं उसे देर तक देखता रह गया.

उनका चेहरा उठा आसमाँ की तरफ़
चाँद भी एकटक देखता रह गया.

खुल गयी नींद, सपना न टूटे कहीं
बंद करके पलक देखता रह गया.

हो गया मैं बरी फिर भी देखो उसे
मुझपे इतना था शक, देखता रह गया.

हक जता के तू खुशियाँ चुराता रहा
जिसका था उनपे हक, देखता रह गया.

मेरा दुश्मन मिला जब मुझे प्यार से

क्या सिखाता सबक? देखता रह गया

रविवार, 12 जनवरी 2014

पिछले एक सौ बीस मिनट में.....

एक पुरानी रचना है यह. लगभग २७ वर्ष पुरानी.

पिछले एक सौ बीस मिनट में, मेरे आक़ा!
समाचार है नहीं किसी अप्रिय घटना का.

हिंसा आगज़नी गड़बड़ की सारी ख़बरें
झूठी अफवाहें हैं ये अखबारी ख़बरें 
हम खुद पर्चे छाप-छाप कर बटवाएंगे 
नहीं छापते ये अखबार हमारी ख़बरें 

हम खींचेंगे खुशहाली का असली खाका.

देश तरक्क़ी पर है लेकिन गाफिल जनता
नहीं आपकी कृपा-दृष्टि के काबिल जनता
सच पूछें तो समझ नहीं पायी है अब तक
आपका ये एहसान, बड़ी है जाहिल जनता

तभी आपके शासन में भी करती फाका.

क्यों हुज़ूर चिंतित हैं इन लोगों की खातिर?
मंत्रीगण अफसर हैं किन लोगों की खातिर?
इनका सुख-दुःख आप भला क्यों पूछ रहे हैं?
हम अर्पित हैं सारा दिन लोगों की खातिर.

भला-बुरा हम खूब समझते हैं जनता का.

प्यास? लीजिये, इस गिलास में फ्रूट-जूस है.
शोर? किसानों का शायद कोई जुलूस है.
नहीं महल की शान्ति भंग होने देंगे हम,
उन सब के स्वागत की खातिर कारतूस है.

खूब सुरक्षित महल, बंद है हर इक नाका!

रंग-बिरंगे चित्रित विज्ञापन के ज़रिये
नाटक नृत्य गीत कविता के फन के ज़रिये
छा जायेंगे लोगों के दिल औ' दिमाग पर
हमीं रेडियो और दूरदर्शन के ज़रिये.

फहराएगी तभी आपकी कीर्ति-पताका.

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

चाँदनी का इक समंदर आसमां

चाँदनी का इक समंदर आसमां
दूर से दिखतीं शहर की बत्तियाँ .

सुन रहा हूँ राह में चलते हुए
सर्दियों की रात की खामोशियाँ.

चाँद का चेहरा कुछ ऐसा लग रहा
पढ़ रहा हो ज्यों पुरानी चिट्ठियाँ .

ज़ेहन के बेदाग़ कैन्वस पर कहीं
दूर तक दिखती नहीं हैं बदलियाँ .

मिल के गो बैठे लगाते कहकहे
घेर लेती हैं मगर तन्हाइयाँ .

कागजी फूलों के इस उद्यान में
क्या मिलेंगी खूबसूरत तितलियाँ ?

पारदर्शी काँच की दीवार है
इस तरफ दर्शक, उधर हैं मछलियाँ .

कामना के शून्य निर्जन गाँव में
नाचती हैं आज बस परछाइयाँ .

क्या मिलेगा आंसुओं में भीग कर?
बस, धुआँ देती हैं गीली लकड़ियाँ.





गुरुवार, 2 जनवरी 2014

सपनों को सिद्धांत समझ कर ....

सपनों को सिद्धांत समझ कर अड़ने की तकलीफ़ भी है
बुने हुए सपनों के पुनः उधड़ने की तकलीफ़ भी है.

उपवन में बेमौसम पत्ते झड़ने की तकलीफ़ भी है
और पेड़ पर लगे फलों के सड़ने की तकलीफ़ भी है.

बात अधूरी रह जाने का ही मन में अफ़सोस नहीं
लगातार सीने में काँटा गड़ने की तकलीफ़ भी है.

दिन भर दर्दनाक स्थितियों की उलझन से भिड़ने के बाद
रात उसी उलझन से कविता घड़ने की तकलीफ़ भी है.

बहुत बचा कर रक्खा मन का मनभावन माणिक अनमोल
उसके किन्हीं ग़लत हाथों में पड़ने की तकलीफ़ भी है.

बाहर के तूफ़ानों से तो जैसे-तैसे बच जाएँ
भीतर के खालीपन से खुद लड़ने की तकलीफ़ भी है.

दुख-दर्दों को सहने की तो बात अलग है जीवन में
उनका असली कारण ठीक पकड़ने की तकलीफ़ भी है.