शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

चाँदनी का इक समंदर आसमां

चाँदनी का इक समंदर आसमां
दूर से दिखतीं शहर की बत्तियाँ .

सुन रहा हूँ राह में चलते हुए
सर्दियों की रात की खामोशियाँ.

चाँद का चेहरा कुछ ऐसा लग रहा
पढ़ रहा हो ज्यों पुरानी चिट्ठियाँ .

ज़ेहन के बेदाग़ कैन्वस पर कहीं
दूर तक दिखती नहीं हैं बदलियाँ .

मिल के गो बैठे लगाते कहकहे
घेर लेती हैं मगर तन्हाइयाँ .

कागजी फूलों के इस उद्यान में
क्या मिलेंगी खूबसूरत तितलियाँ ?

पारदर्शी काँच की दीवार है
इस तरफ दर्शक, उधर हैं मछलियाँ .

कामना के शून्य निर्जन गाँव में
नाचती हैं आज बस परछाइयाँ .

क्या मिलेगा आंसुओं में भीग कर?
बस, धुआँ देती हैं गीली लकड़ियाँ.





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