चाँदनी
का इक समंदर आसमां
दूर
से दिखतीं शहर की बत्तियाँ .
सुन
रहा हूँ राह में चलते हुए
सर्दियों
की रात की खामोशियाँ.
चाँद
का चेहरा कुछ ऐसा लग रहा
पढ़
रहा हो ज्यों पुरानी चिट्ठियाँ
.
ज़ेहन
के बेदाग़ कैन्वस पर कहीं
दूर
तक दिखती नहीं हैं बदलियाँ .
मिल
के गो बैठे लगाते कहकहे
घेर
लेती हैं मगर तन्हाइयाँ .
कागजी
फूलों के इस उद्यान में
क्या
मिलेंगी खूबसूरत तितलियाँ
?
पारदर्शी
काँच की दीवार है
इस
तरफ दर्शक, उधर हैं
मछलियाँ .
कामना
के शून्य निर्जन गाँव में
नाचती
हैं आज बस परछाइयाँ .
क्या
मिलेगा आंसुओं में भीग कर?
बस,
धुआँ देती हैं
गीली लकड़ियाँ.
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