रविवार, 12 जनवरी 2014

पिछले एक सौ बीस मिनट में.....

एक पुरानी रचना है यह. लगभग २७ वर्ष पुरानी.

पिछले एक सौ बीस मिनट में, मेरे आक़ा!
समाचार है नहीं किसी अप्रिय घटना का.

हिंसा आगज़नी गड़बड़ की सारी ख़बरें
झूठी अफवाहें हैं ये अखबारी ख़बरें 
हम खुद पर्चे छाप-छाप कर बटवाएंगे 
नहीं छापते ये अखबार हमारी ख़बरें 

हम खींचेंगे खुशहाली का असली खाका.

देश तरक्क़ी पर है लेकिन गाफिल जनता
नहीं आपकी कृपा-दृष्टि के काबिल जनता
सच पूछें तो समझ नहीं पायी है अब तक
आपका ये एहसान, बड़ी है जाहिल जनता

तभी आपके शासन में भी करती फाका.

क्यों हुज़ूर चिंतित हैं इन लोगों की खातिर?
मंत्रीगण अफसर हैं किन लोगों की खातिर?
इनका सुख-दुःख आप भला क्यों पूछ रहे हैं?
हम अर्पित हैं सारा दिन लोगों की खातिर.

भला-बुरा हम खूब समझते हैं जनता का.

प्यास? लीजिये, इस गिलास में फ्रूट-जूस है.
शोर? किसानों का शायद कोई जुलूस है.
नहीं महल की शान्ति भंग होने देंगे हम,
उन सब के स्वागत की खातिर कारतूस है.

खूब सुरक्षित महल, बंद है हर इक नाका!

रंग-बिरंगे चित्रित विज्ञापन के ज़रिये
नाटक नृत्य गीत कविता के फन के ज़रिये
छा जायेंगे लोगों के दिल औ' दिमाग पर
हमीं रेडियो और दूरदर्शन के ज़रिये.

फहराएगी तभी आपकी कीर्ति-पताका.

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