आसमान बदरंग हुआ था
दोनों तरफ़ 'अपार्टमेंट्स' थे
सामने ख़ाली सड़क ।
सूनापन था भीतर-बाहर
चौबीस घंटे चलती-फिरती
हँसती-गाती तस्वीरों के बावजूद
मन था उदास ।
ढल चुकी थी उम्र उसकी
और जा चुके थे बच्चे परदेस ।
अनायास भर कर उसाँस
जब दुआ के लिए
दोनों हाथ उठे ऊपर
तो 'डि-ओडरेंट' का ही विचार
कौंधा भीतर !
4 टिप्पणियां:
सबसे पहले बधाई इस कलात्मक ब्लॉग के लिए...इतनी खूबसूरती और शांति बिखरी है आपके ब्लॉग पर की मन को बाँध लेती है...वाह...दूसरी बधाई इस विलक्षण कविता के लिए...बेहतरीन रचना...वाह...
नीरज
रचना में परिवेश का सुन्दर चित्रण है।
बधाई!
शब्द पुष्टिकरण हटा दें, श्रीमान जी!
vigyaapanon aur sansaadhanon ke adhunik jeevan par prabhaav ka itni khoobsurati se varnan kiya hai ki koi bhi vichaarbadhdh hoga... vaah uncle!
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