मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं ।
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं ।
आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं ।
हिलने लगते राजसिंहासन, धरती करवट लेती है,
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं ।
कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊंचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी यह दरख्वास्त क़ाबिले-गौर नहीं ?
इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं ।
ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें
ख़ुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं ?
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर रचना, बेमिसाल।
असत्य पर सत्य की जीत के पावन पर्व
विजया-दशमी की आपको शुभकामनाएँ!
"khud ko agar badal lein hum, to kya badlega daur nahin" BEHTAREEN....uncle yeh kavita bahut achchi hai, bahut preranaatmak...
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