हम अक्सर लपक कर
जा रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम चाहते हैं
पर जहाँ हम अंततः पहुँचते हैं
वहां वे नहीं होते,
सिर्फ़ उनकी छायाएँ होती हैं ।
यह काफ़ी दुखद स्थिति होती है
पर इससे भी ज़्यादा दुखद वह होता है
जो इस सारी प्रक्रिया में
अनजाने घटित होता रहता है ।
यानी जब हम लपक कर
बढ रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम प्यार करते हैं
उसी समय --- ठीक उसी समय
बेरहमी से नहीं, सिर्फ़ बेख़याली में
हम रौंद रहे होते हैं
उनको जो हमें प्यार करते हैं ।
वैसे यह बेख़याली बेरहमी से
कम तो नहीं होती !
5 टिप्पणियां:
एक नया बिम्ब है यह..एक नया भाव..मृग-मरीचिकाओं के पीछे भागने वालों को कुछ सोचने पर बाध्य करती..शानदार.
वाह!! क्या बात है.
आनन्द आ गया.
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
बधाई!
ultimate hai sir
बेख़याली बेरहमी से कतई कम नहीं होती....
बेहद यथार्थपूर्ण रचना...
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