सोमवार, 7 सितंबर 2009

बेखयाली

हम अक्सर लपक कर
जा रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम चाहते हैं
पर जहाँ हम अंततः पहुँचते हैं
वहां वे नहीं होते,
सिर्फ़ उनकी छायाएँ होती हैं ।
यह काफ़ी दुखद स्थिति होती है
पर इससे भी ज़्यादा दुखद वह होता है
जो इस सारी प्रक्रिया में
अनजाने घटित होता रहता है ।
यानी जब हम लपक कर
बढ रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम प्यार करते हैं
उसी समय --- ठीक उसी समय
बेरहमी से नहीं, सिर्फ़ बेख़याली में
हम रौंद रहे होते हैं
उनको जो हमें प्यार करते हैं ।
वैसे यह बेख़याली बेरहमी से
कम तो नहीं होती !

5 टिप्‍पणियां:

अपूर्व ने कहा…

एक नया बिम्ब है यह..एक नया भाव..मृग-मरीचिकाओं के पीछे भागने वालों को कुछ सोचने पर बाध्य करती..शानदार.

Udan Tashtari ने कहा…

वाह!! क्या बात है.

आनन्द आ गया.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बेहतरीन अभिव्यक्ति।
बधाई!

Aparna Sharma ने कहा…

ultimate hai sir

Unknown ने कहा…

बेख़याली बेरहमी से कतई कम नहीं होती....
बेहद यथार्थपूर्ण रचना...