सोमवार, 2 नवंबर 2009

दंगा-राहत

मंजीत ने अपना वादा पूरा किया था। आज उसकी चिट्ठी मिलने से पुनीता के उदास चेहरे पर ख़ुशी लौट आयी थी. ममी लॉन में कुर्सी डाल कर बैठी स्वेटर बुन रही थीं. साथ ही सोच रही थीं कि सहेली का पत्र मिलते ही पुनीता कैसे उड़ान भरते पक्षी की तरह उत्साह से भर गयी है, चहक रही है. उन्हें अपना बचपन याद आ गया. उनकी स्कूल-कॉलेज की सहेलियां सब अलग-अलग हो गयीं थीं. सभी अपने-अपने घरों, बच्चों और नौकरियों में व्यस्त होंगी. एक उसांस छोड़ कर वे फिर से बुनने लगीं. उधर अमृतसर से उनके देवर देव शरण की भी एक चिट्ठी आज आयी थी. वह परिवार-सहित हरियाणा में आ कर बसना चाहता था. इस विषय में बड़े भाई से सलाह-मशविरा करने वह चार-पाँच दिन में आने वाला था. बुनते-बुनते ममी के चेहरे पर चिंता और परेशानी के बादल घिर आये.
अचानक पुनीता गेट की ओर भागी--"पापा आ गए! ...पापा! आज दो चिट्ठियां आयीं हैं-- मंजीत की और चाचा जी की। मंजीत परसों वापिस आ रही है." अपने मन का उल्लास वह पापा के साथ बांटना चाहती थी. पापा गेट खोल कर अन्दर आये, तो उनके चेहरे पर अजीब-सा तनाव था. वे बहुत परेशान और चिंतित दिखाई दे रहे थे.
इससे पहले कि ममी कुछ पूछें, वे खुद ममी के निकट आ कर बोले--"कुछ सुना तुमने? सुनने में आया है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी।"
ममी अविश्वास से उनकी ओ़र देखती रह गयीं। फिर बोलीं--"किसने कहा आपसे? क्या रेडियो पर सुना है?" पुनीता का सारा उल्लास काफूर हो गया. "पुनीता, ज़रा अन्दर से ट्रांजिस्टर तो लाना. समाचार सुनने से पक्का पता चलेगा." पापा यह कहते हुए लॉन में कुर्सी पर बैठ गए.
धीरे-धीरे दिल्ली की घटनाओं के बारे में उड़ती-उड़ती खबरें पहुँचने लगीं. अगले दिन तक मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा के बारे में पुनीता को कुछ पता नहीं चला. वे सब ठीक-ठाक हैं या नहीं--यह चिंता उसके मन में बढती जा रही थी. रात को सोने से पहले वह पापा से खूब बातें करना चाहती थी, पर पापा अब कम बोलने लगे थे. जैसे-जैसे खबरें आतीं, वे ज्यादा गंभीर होते जाते. पुनीता बार-बार उनके नज़दीक आती. उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह किसी बंद दरवाजे की ओर बार-बार जाती है, लेकिन उसे खटखटाती भी नहीं, क्योंकि उस पर ताला लगा है.
"पापा! मंजीत के ममी-पापा अब तक वापस नहीं आये। उन्हें कुछ हुआ तो नहीं होगा?" पुनीता ने पापा के चेहरे की तरफ यूं देखा, जैसे उनके आश्वासन से ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। उधर पापा के भीतर जो कुछ बर्फ की तरह जमा हुआ था, वह पुनीता के मंजीत और उसके परिवार के प्रति सहज-सच्चे लगाव की गर्माहट से धीरे-धीरे पिघलने लगा-- "पुनीता, कल रात जब तुम सोने से पहले प्रार्थना कर रही थीं, तब मैं आँखें बंद कर के लेटा हुआ था ना? मैंने तुम्हारी प्रार्थना के शब्द सुने थे। मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारी प्रार्थना से अगर मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा यहाँ सकुशल लौटते हैं, तो ऐसा ही हो। पर मुझे दो-तीन दिन से ऐसा लग रहा है कि शुभकामना या प्रार्थना अच्छी होते हुए भी काफी नहीं है । इससे आगे भी कुछ करना ज़रूरी है।"
"जैसे कोई बड़ा बलिदान?" पुनीता का सवाल था ।
"देखो, बेटे! बड़ा बलिदान करने के मौके तो ज़िन्दगी में थोड़े-से ही होते हैं। अगर हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें, तो उसीसे बड़ी-बड़ी मुश्किलें हल हो सकती हैं।"
"पापा! सब का सोचने का तरीका भी तो अलग-अलग होता है ना ? इससे भी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं।"
"नहीं, बेटे ! इससे मुश्किलें खड़ी नहीं होतीं. बल्कि यह तो अच्छी बात है. खैर, वह सब तुम्हें फिर कभी समझाऊंगा . फिलहाल तो हमें...."
"मंजीत के बारे में पता लगाना चाहिए," पुनीता ने जल्दी से पापा का अधूरा वाक्य पूरा किया।
"हाँ, बेटे ! मुझे भी आज चिंता हो रही है. कल दोपहर तक अगर वे नहीं आये, तो टेलीग्राम भेज कर पता करेंगे. "सुनो, मंजीत की चिट्ठी में वहां का फोन नंबर लिखा है क्या ?"
"नहीं, पापा. फोन नंबर तो नहीं है. बस, पता लिखा हुआ है."
पापा का ध्यान देव शरण की ओर चला गया . उसका हरियाणा में किसी स्थान पर आ कर रहना लगभग तय हो चुका था .यह निर्णय भी कोई आसान नहीं था . पापा सोच रहे थे कि देव शरण के साथ वे क्या बात करेंगे ? क्या कहेंगे उसको ?
यह मंजीत ही तो थी, जो पुनीता के सामने खड़ी थी . वही आँखें थीं, पर वैसी नहीं थीं . वही चेहरा था पर वैसा नहीं था . थोड़े-थोड़े शब्द उसके मुंह से निकलते थे, पर वह ऐसा कुछ नहीं बोल रही थी कि "पागल है तू तो !"जो भी वह कहती या करती थी, उसमें स्वयं मौजूद नहीं होती थी . ज़रूर पिछले चार दिनों में ही सब कुछ हुआ था . पुनीता को ठीक-ठीक मालूम नहीं कि क्या हुआ था . वह मंजीत के घर से लौटते हुए विचारों में खोई हुई थी . मंजीत के ममी-पापा सकुशल घर आ गए थे-- इस बात से उसके मन को बड़ी राहत मिली थी . पर उन सब का व्यवहार उसे पहेली की तरह लग रहा था . शायद पापा कुछ बता सकें .
पापा मंजीत के 'दारजी' से मिलने के लिए घर के गेट से बाहर निकल रहे थे । बाहर पड़ोस के घर की दीवार के साथ नोनू अपने दोस्त संजू के साथ बातें करने में खोया हुआ था . छोटी-सी गेंद उसके हाथ में थी . खेलते-खेलते शायद वे बातों में ज्यादा रुचि लेने लग गए थे . संजू बालसुलभ गर्व के साथ बता रहा था -- "'दिल्ली में ना मेरे मामा जी रहते हैं .उनके घर में ना एक खरगोश था . एक दिन पता है क्या हुआ ? दोपहर को बिल्ली ने उसको मार दिया ." नोनू का ध्यान संजू के पहले वाक्य में ही अटक गया लगता था . जैसे वह भी संजू से कुछ कम नहीं था, इस अंदाज़ में बोला -- "दिल्ली में तो मेरी नानी भी रहती हैं . और पता है ? मेरे तो नाना जी भी नहीं मरे ।"
पापा के कदम ठिठक गये . मंजीत के नाना-नानी के बारे में जान कर आश्वस्त तो हुए, लेकिन उनके न मरने की खबर से मिली राहत ने भी उन्हें सोचने पर विवश कर दिया .

क्या अब हम ऐसी राहतों के सहारे जिंदा रहेंगे ? आखिर हम ऐसा क्यों होने देते हैं बार-बार ?

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर पोस्ट!
बधाई!

Unknown ने कहा…

sir, its really a good story. I got a hidden message in this story... CONGRATULATION sir, and really thanks to share it with us....